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अग्नि वैकारिकी
१००१ ट्रापीकल स्पू ( Tropical Sprue ) यद्यपि यह पोषण की कमी से उत्पन्न होने वाला रोग है पर इसके लक्षण संग्रह ग्रहणी से पर्याप्त मिलते हैं खासकर दिवा प्रकोपो भवति रात्रौ शान्ति व्रजेच्च सा के कारण ट्रापीकल स्पू और संग्रह ग्रहणी बहुत निकट आ सके हैं। स्पू को सिलोसिस ( Psilosis ) या सीलोन सोरमाउथ ( लंकामुखपाक ) आदि नाम भी दिये जाते हैं। यह रोग भारत, ब्रह्मा, लङ्का, दक्षिण चीन में अधिक देखने में आता है।
इस रोग में चुदान्त्र की श्लेष्मलकला की आहार प्रचूषिणी शक्ति (absorptive power ) कम हो जाती है। खास करके स्नेहों का प्रचूषण नहीं होने पाता। यह रोग जोर्ण रूप धारण किए विना मानता नहीं है। इस रोग के तीन प्रमुख लक्षण, जिह्वा पाक ( glossitis ), आध्मान ( meteorism ) और स्नेहातीसार (steatorhoea) पाये जाते हैं । अतीसार प्रभात में अधिक कष्ट देता है रात्रि में नहीं। आध्मान भोजनोपरान्त अथवा रात्रि में अधिक बनता है। जिह्वापाक में जीभ सूज जाती है, लार बहुत टपकती है और साथ-साथ मुखपाक ( stomatitis ) भी हो जाता है। जिह्वा पर अम्ल पदार्थ या लवण स्पर्श कराते ही घोर कष्ट का अनुभव रोगी करने लगता है। जिह्वापाक का लक्षण बहुधा अतीसार आरम्भ होने के पूर्व ही देखा जाता है । अतीसार आरम्भ में तीव्र स्वरूप का होता है यह सद्रव, झागयुक्त, मात्रा में बहुत और तीव्र गन्धयुक्त होता है अर्थात् उसमें संग्रह ग्रहणी के
द्रवं शीतं धनं स्निग्धं सकटी वेदनं शकृत् । आमं बहु सपैच्छिल्यं सशब्दं मन्दवेदनम् ॥ लक्षण यथार्थतः मिल जाते हैं। मल में भोजन के बिना पचे कण, रंग की कमी, स्नेह बहुलता, पित्तोपस्थिति पाई जाती है। साधारण अवस्था में रोगी जितना मल निकालता था उससे ५ गुना तक मल एक बार में और प्रभातकाल में वह निकाल देता है। न्यूट्रल फैट की अपेक्षा फैटी ऐसिड्स मात्रा में तीन गुनी निकलती हैं। अण्वीक्षण करने पर फैटी ऐसिड्स के स्फट तथा स्नेह के विन्दुक सरलतया देखे जा सकते हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि अग्निरस की क्रिया यथावत् होती है अर्थात् स्निग्धांश का पाचन ठीक ठीक हो जाता है पर उसका शोषण नहीं होने पाता इसके कारण रक्त में स्नेह की कमी हो जाती है। अर्थात् जहाँ स्वाभाविक स्वस्थ रक्त में ६०० मि.ग्रा. प्रतिशत स्नेह मिलता था वहाँ वह स्यू में ४१२.८ मि. ग्रा. प्रतिशत ही देखने में आता है।
आमाशयिक रस में लवणाम्ल का अभाव भी इस रोग में विशेष करके देखने को मिलता है। आमाशय की श्लेष्मलकला देखने पर अपुष्ट मिल सकती है।
मूत्र में रोग की तीवावस्था में मूत्रपित्ति (urobilin) पाई जा सकती है। मूत्र में नीलरूपता ( coproporphyrinuria) या नीलमेहता (indicanuria) पाई जासकती है।
रक्तको देखने से अनीमिया का लक्षण अधिक मिलता है। इसमें महाकोशाधिक्य जिसमें कोशा विषमाकृतिक और परमवर्णिक होते हैं, पाया जाता है। परम
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