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विकृतिविज्ञान पदार्थों को तैयार करती रहती हैं। इस तैयारी में कुछ जो खराब बच जाता है वह किट्टभाग मल कहलाता है। ___ अन्न से बनी रसधातु स्वयं अपना तर्पण करती है। उसकी अग्नि कुछ रक्त तत्व बनाती है और कुछ दोषरूप कफ नामक मल की उत्पत्ति करती है। रक्त नामक धातु के निर्माण में रसधातु पर्याप्त कार्य करती है और किट्टरूप में पित्तदोषोत्पत्ति होती है। रक्त का प्रसादक रूप मांस बढ़ाता है। मांस का प्रसादक भाग मेदस् धातु बनाता है और किट्ट से कान नाक आदि से निकलने वाला मल बनता है। मेदोधातु का प्रसाद भाग अस्थितत्व तैयार करता है और किट्ट भाग से स्वेदोत्पत्ति होती है। अस्थि धातु अपनी ऊष्मा से अन्नस्थ तत्वों का ग्रहण करती है फिर अपने प्रसाद भाग से मज्जा और किट्टभाग से केश और लोम तैयार होते हैं। मजा का प्रसाद भाग शुक्र बनाता है और किट्ट भाग से त्वचा में व्याप्त स्नेहांश और नेत्रों का कीचड़ बन जाता है।
कुछ धातुएँ अपनी उपधातुएँ भी बनाती हैं। रस से स्त्रियों में स्तन्य और आर्त्तव तथा रक्त से कण्डरा और सिरा मांस से वसा तथा ६ त्वचा और मेदस से स्नायुओं की उत्पत्ति कही गई है। यथारसात्स्तन्यं स्त्रिया रक्तमसृजः कण्डरा सिराः । मांसादसा त्वचः षट् च मेदसः स्नायुसम्भवः ।।
(च. चि. स्था. अ. १५) पाचकाग्नि सब अग्नियों में प्रधान मानी गई है उसकी वृद्धि पर ही भौतिक और धात्वग्नियाँ वृद्धि को प्राप्त होती हैं तथा उसके क्षीण होने के साथ ही साथ वे भी क्षीण हो जाती हैं। चरकाचार्य का कहना है कि:तस्मात्तं विधिवद्युक्तैरन्नपानेन्धनैहितैः। पालयेत्प्रयतस्तस्य स्थितौ ह्यायुर्वलस्थितिः ॥
इसलिए हितकारी अन्नपान रूप ईंधन द्वारा उस पाचकाग्नि को जो अन्नस्य पक्ता सर्वेषां पक्तृणामधिपो मतः है विधिपूर्वक और प्रयत्नपूर्वक पालन करना चाहिए क्योंकि शरीर के आयु और बलादिक की सम्पूर्ण स्थिति इसी पाचकाग्नि पर है। ___ इस पाचकाग्नि के दूषित होने का फल ग्रहणी रोग के होने में होता है। ग्रहणी रोग के वर्णन को समझने के पूर्व पाचकाग्नि की महत्ता को जानना पड़ेगा तभी इसकी आयुर्वेदीय विचारधारा के साथ तादात्म्य स्थिर किया जा सकता है। ग्रहणी का रोगी अत्यन्त कृश, सुधा से रहित और उदर रोगों से युक्त इसीलिए देखा जाता है कि उसकी पाचकाग्नि अत्यन्त दूषित हो जाने के कारण रस, रक्त, मांस, मेदस् , अस्थि मजा और शुक्रादि धातुओं का निर्माण ठीक से होता नहीं। सुश्रुत ने लिखा है
___ अतीसारे निवृत्तेऽपि मन्दाग्नेरहिताशिनः । भूयः सन्दूषितो वह्निर्ग्रहणीमभिदूपयेत् ॥ कि अतीसार से छुटकारा पाने पर भी अग्निमान्द्य से पीडित और अपथ्यकर द्रव्य सेवी की पाचकाग्नि खूब दूषित हो जाती है और वह ग्रहणी को भी दूषित कर देती है । अतीसार के पश्चात् और अतीसार के विना भी अग्नि के बिगड़ जाने से ग्रहणी के दूषित होने की पूर्ण आशङ्का रह सकती है।
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