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विकृतिविज्ञान सर्वमजीणं त्रिदोषजम् का जो नारा लगाते हैं वे हमारे मत की पुष्टि ही करते हैं कि अग्नि की दुर्बलता ही अजीर्ण है। अग्नि दुर्बल होने पर तीनों ही दोषों का धातुरूप पाचन पूरा-पूरा न होकर कुछ धातुरूप और कुछ मलरूप पाचन होता है जिसके कारण त्रिदोषज लक्षण ही अजीर्ण में होते हैं पर
____एक दोष व्यपदेशस्तूत्कटैकदोषलिङ्गत्वेन। अलग-अलग दोषों के तरतम भेद से विभिन्न नाम दिये जाते हैं।
दिनपाकी अजीर्ण वह अवस्था है जब एक निश्चित काल में अन्न का पाक न होकर अधिक काल वह लेता है।
दिनपाकि चेत्यहोरात्रेणाहारः पच्यत इत्युत्सर्गः यत्र तु मात्राकालासात्म्यादिदोषादपरदिने पच्यते तद्दिनपाकि-विजयरक्षित। यह निर्दोष माना गया है। अग्नि कुछ-कुछ मन्द है और शरीर में दोषदृष्य साम्य की स्थिति किसी तरह ढकेली जा रही है यही इससे प्रकट होता है।
प्राकृत अजीर्ण एक व्यर्थ का दोषारोपण मात्र है। भोजन करने के बाद समाग्नि भी कुछ काल चाहती है जिसमें उसका परिपाक होना है। इस काल के पूर्णतया बीतने से पहले प्राकृत अजीर्ण का ही काल होता है। जीर्णाहार के लक्षण जो उद्गार शुद्धि उत्साहादि ऊपर कह आये हैं वे भोजन खाने के तुरत बाद नहीं होते। जबतक वे नहीं होंगे हम जीर्णाहार नहीं कह सकते अतः भोजन ग्रहण करने के बाद इन लक्षणों के प्राकट्य तक प्राकृत अजीणं का समय रहता है।
माधवकर ने इन अजीर्णों के लक्षण बताने के लिए अधोलिखित सूत्र दिये हैंतत्रामे गुरुतोत्क्लेदः शोथो गण्डाक्षिकूटगः। उद्गारश्च यथामुक्तमविदग्धः प्रवर्तते ॥ विदग्धे भ्रमतृण्मूर्छाः पित्ताच्च विविधा रुजः । उद्गारश्च सधूमाम्लः स्वेदो दाहश्च जायते।। विष्टब्धे शूलमाध्मानं विविधा वातवेदनाः। मलवाताप्रवृत्तिश्च स्तम्भो मोहोऽङ्गपीडनम् ।। रसशेषेऽन्न विद्वेषो हृदयाशुद्धि गौरवे। इन्हीं का सुश्रुत ने निम्न वाक्यों में प्रकटीकरण किया है
माधुर्यमन्नं गतमात्रसंज्ञं विदग्धसंज्ञं गतमम्लभावम् । किञ्चिद्विपक्कं भृशतोदशूलं विष्टब्धमाबद्धविरुद्धवातम् ।। उद्गार शुद्धावपि भक्तकाङ्क्षा नजायते हृद्गुरुता च यस्य ।
रसावशेषेण तु सप्रसेकं चतुर्थमेतत् प्रवदन्त्यजीर्णम् ।। अब आमाजीर्ण में अन्न में माधुर्य भाव की वृद्धि तो होती है पर उसका परिपाक ठीक नहीं होने से अजीर्ण बन जाता है। कफ दोष की दूषकता का यहाँ महत्त्व है। उसके कारण गौरव, उत्क्लेश, अक्षिकूट तथा गण्डप्रदेश में शोथ तथा जैसा भोजन किया हो तदनुकूल डकारें आया करती हैं। ये डकारें भोजन की अविदग्धावस्था में बिना पचे हुए ही आती हैं। विदग्धाजीण में सम्पूर्ण आहार अपक्क रहने की साथ-साथ अम्ल भाव को प्राप्त होने के कारण पैत्तिकोपद्रवों की उत्पत्ति करता है जिनमें भ्रम, तृष्णा, मूर्छा, खट्टी डकारें, धुआँसा निकलता हुआ, स्वेदाधिक्य, दाह तथा अन्य अनेक
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