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रुधिर वैकारिकी
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( rieder's cells ) कहते हैं वे पाये जाते हैं जो लसीकोशीय सितरक्तता की ओर इंगित करते हैं पर वे सदैव उपस्थित नहीं रहा करते ।
इस रोग में रक्तक्षय बहुत अधिक होता है । रंगदेशना घट जाती है और लालकण गणन १० लाख या उससे भी कम देखा जा सकता है । बृहद्रक्तरुह ( मैगालोब्लास्ट ) भी मिलते हैं पर सन्यष्टि रुधिराणु बहुत कम ही देखने में आते हैं ।
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इस रोग में स्तम्भीकोशाओं की उपस्थिति को पुनः एक बार याद दिलाना परमावश्यक है । ये कोशा सदैव पीठरन्ज्य होते हैं इनमें अपेक्षाकृत बड़ी न्यष्टि होती है और न्यष्टि का विशेष प्रकार होता है । लसीकोशा की न्यष्टि में जहाँ कोई निन्यष्टि नहीं देखी जाती और न्यष्टिय अभिवर्णि ( nuclear chromatine) एक रूक्ष प्रकार प्रकट करती है जिसमें भारी क्षेत्र ( heavy blocks ) मिलते हैं एक स्तम्भीय लसीकोशा की न्यष्टि में एक या कई निन्यष्टियाँ देखी जाती हैं और उसकी न्यष्टीय अभिवर्ण में अति सूक्ष्म धारियाँ पाई जाती हैं ।
सिरक्तता में अस्थिमज्जा लाल और परमचयिक हो जाती है और अप्रगल्भ कोशाओं से भर जाती है । उसमें पूर्ण प्रगल्भ सितकोशा बहुत कम ही देखने को मिलते हैं । रक्त के लाल कणों का निर्माण भी कम होता हुआ देखा जाता है । उसमें मज्जारुहों ( myeloblasts ) खूब भरे होते हैं थोड़े से मज्जकोशा ( myelocytes ) मिलते हैं और थोड़े से ही रुधिराणु पाये जाते हैं अर्थात् रुधिराणु निर्माणकर्त्री ऊति यहाँ पूर्णतः विस्थापित हो जाती है ।
हा इस रोग में बढ़ने का प्रयत्न भर करती है । उसकी पर्याप्त वृद्धि होने के पूर्व रोगी इस असार संसार का परित्याग कर देता है । जितना ही रोग अधिक तीव्र होगा प्लीहा उतनी ही कम बढ़ेगी । यहाँ तक कि अतीव गम्भीर रोगावस्था में यह बिल्कुल भी नहीं बढ़ती । अण्वीक्षण करने पर इसके अन्दर अप्रगल्भ सितकोशाओं की खूब भरमार देखी जाती है ।
लसग्रन्थक मज्जरुहों से भरे हुए होते हैं तथा कुछ फूल जाते हैं । सम्पूर्ण शरीर की सग्रन्थियाँ उतनी नहीं फूलतीं । किसी-किसी अंग में वे अधिक फूल सकती हैं । उनमें रक्तस्रावी प्रवृत्ति और मार्दव मिल सकता है जो अर्बुद या पूया ( sepsis ) की ओर इङ्गित करता है ।
हृत्पेशी में रक्तस्त्राव के साथ-साथ स्नैहिक विह्रास मिल सकता है । यह विहास अजारकी ( anoxaemia ) प्रकार का ही होता है । यकृत् तथा वृक्कों में भी यह मिल सकता है । रक्तक्षय तथा स्नैहिक परिवर्तनों के कारण शरीर रोगों का वर्ण पाण्डुर हो जाता है । लक्ष्य ( serious) कलाओं तथा श्लैष्मिक mucous ) कलाओं में रक्तस्राव होता हुआ मिल सकता है । हृत्पेशी में उपहृदन्तःभाग तथा उपपरिहृत् भाग में रक्तस्त्राव के कारण खूब धब्बे मिलते हैं और वह अत्यधिक पाण्डुर हो जाती है । एककोशीयसितरक्तता ( Monocytic leukaemia )
इसे एक कायिक सितरक्तता भी कहते हैं । पर इस रोग में एक कोशीय सितकोशा
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