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विकृतिविज्ञान
पायी नहीं जाती इसलिए इस रोग के निदान में कठिनाई नहीं पड़नी चाहिए । इस रोग में रंगदेशना ०.६ तक हो जाती है। नासा तथा मसूड़ों से रक्तस्राव की प्रवृत्ति भी प्रायः पाई जाती है ।
कूलीय रक्तक्षय ( Cooley's anaemia )
जिसे सितरक्तरुहीय ( leuco-erythroblastic anaemia ) कहते हैं जो कि एक प्रकार का भूमध्यसागर इन क्षेत्रों में बसी हुई जातियों में बहुधा मिलता है इसमें भी फान जक्षीय रक्तक्षय से मिलते जुलते लक्षण पाये जाते हैं । इसमें प्लीहाभिवृद्धि, अस्थिमज्जा में परमचय के साथ अस्थि सौषुर्य ( osteoporosis ) खूब पाया जाता है । यह परमवर्णिक तथा सूक्ष्मवर्गिक दोनों प्रकार का होता है इसमें रक्त के श्वेतकण तथा लालक दोनों ही कम हो जाते हैं इसी से इसे सितरक्तरुहीय नाम दिया गया है। लालकण ऋजुरुह या रक्तरुह होते हैं तथा श्वेतकण मज्जकोशा मिलते हैं । इस रोग में अस्थियों पर विशेष प्रभाव पड़ता है जो बराबर सुपिर होती चली जाती हैं ।
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प्लैहिक रक्तक्षय या बैण्टीयामय
(Splenic anaemia or Banti's disease)
इसका कारण अभी तक अज्ञात है । यह बालकों और वयस्कों दोनों में मिलता है पर प्रौढों में प्रायः देखने में नहीं आता है । इस रोग में इतने लक्षण महत्व के मिलते हैं
१. धीरे धीरे रोग की प्रगति ।
२. महास्रोत के किसी भी भाग से रक्तस्राव ।
३. प्लीहा की उत्तरोत्तर वृद्धि ।
४. उपवर्गिक रक्तक्षय का शनैः शनैः उत्कर्ष ।
५. यकृत् तथा प्लीहा में तन्तूत्कर्ष ।
६. जलोदर |
इस रोग में धीरे धीरे बढ़ कर प्लीहा बहुत बड़ी हो जाती है । रक्तक्षय सूक्ष्मकायिक उपवर्णिक होता है । देशना ०.५ से ०.७ तक मिलती हैं । रक्त के लालकणों में आरम्भ में थोड़ी कमी आती है पर आन्त्रिक तीव्र रक्तस्राव के उपरान्त या मृत्यु के पूर्व लालकण गणन पर्याप्त कम हो जाता है ।
महास्रोत में स्थित किसी सिरा के फटने से रक्तस्राव हो सकता है या वहाँ की रक्तवाहिनियों में से थोड़ा थोड़ा रक्त चूता रहता है जिसके कारण रक्तवमन या रक्तातिसार की स्थिति बराबर पाई जाती है । मल में जीवरक्त ( occult blood) पाया जाया करता है ।
इस रोग में रक्तचित्र में सन्यष्टि कोशा कम मिलते हैं जो मिलते हैं वे ऋजुरुह ही होते हैं । जालक कोशाओं का सर्वथा अभाव दिखाई देता है । रक्त-कोशीय पुनर्जनन की सक्रियता का कोई प्रमाण इस रोग में नहीं ही मिलता है ।
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