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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रुधिर वैकारिकी ६२७ शोणप्रियता निन्द्य स्त्रियों के द्वारा उनके पुत्रों में जाता है अतः शोणप्रिय परिवार की कन्याओं को इस दृष्टि से निन्द्य श्रेणी में गिनना चाहिए और यदि वैसी कन्या के साथ विवाह सम्बन्ध जुड़ गया है तो असन्तानोत्पत्ति कारक उपायों का पालन करना चाहिए। तीव्र रक्तस्राव तीव्र रक्तस्राव होने के पश्चात् रक्त के आयतन में जितनी कमी हो जाती है उसकी पूर्ति यथाशीघ्र ऊतियों के द्वारा प्राप्त तरल से हो जाती है इसके कारण रक्त थोड़ा तनु हो जाता है उसके घटकों में कमी पड़ जाती है और रक्तक्षय की स्थिति स्पष्ट होने लगती है । इसे हम जलान्वित रक्त ( watered blood ) की अवस्था कह सकते हैं । यदि रक्त की बहुत अधिक मात्रा रक्तस्राव के कारण निकल चुकी है तो मृत्यु तक हो सकती है पर यदि वैसा नहीं है तो रक्तस्राव के कारण अस्थियन्त्र में क्रिया शक्ति उत्तेजित हो जाती है जिसके कारण ८-१० दिन में रक्त की सारी कमी पूरी कर ली जाती है | यदि कोई कारण अस्थिमज्जा की इस उत्तेजना को रोकने का या विरोध करने का रहा तो रक्तक्षय बना रह सकता है। ऐसा प्रतिरोध न रहने पर रक्त स्त्राव से या रक्त का दान करने से रक्तक्षय उत्पन्न नहीं होता जो होता भी है वह थोड़े दिनों में पूर्ण हो जाता है । जीर्ण रक्तस्राव यदि किसी को एक तीव्र रक्तस्राव के पश्चात् पुनः पुनः रक्तस्राव होने लगता है तो रक्तक्षय बजाय घटने के बढ़ने लगता है । रक्त के लोहांश की कमी हो सकती है जिसके कारण रंगदेशना घट सकती है और रक्तक्षय के गम्भीर परिणाम सामने आ सकते हैं । अब आगे हम शोणांशिक रक्तक्षय का वर्णन करते हैं । ४ शोणांशीय अवस्थाएँ ( Haemolytic conditions ) रक्तक्षय के कई रूप सामने आ चुके हैं । अब जो रूप सामने आ रहा है वह है उस रक्तक्षय का जो रक्त के लाल कर्णो को गला देता है । रुधिराणुओं के गलने की इस क्रिया को हम शोणांशन ( haemolysis ) कहते हैं । सर्पदंश से सहस्रों व्यक्ति प्रतिवर्ष मरते हैं उनकी मृत्यु का मुख्य कारण सर्पविष का शरीरस्थ रक्त के साथ मेल करने पर रुधिराणुओं का गल जाना होता है । यह अंशन ( गलाव ) इतना द्रुत होता है कि शरीर के जारण और प्राणवायु के उपयोग में बाधा होकर मनुष्य तत्काल मर जाता है । लालकों का अन्तर्वाहिनीय विनाश ( intravascular destruction of red bloodcells) शोणांशन का मुख्य कारण होता है । यह शोणांशन प्रथमजात ( primary ) या कारणविहीन (idiopathic ) तथा उत्तरजात ( secondary ) दो प्रकार का हो सकता है। प्राथमिक या प्रथमजात शोणांशीय रक्तक्षय में निम्नलिखित व्याधियाँ सम्मिलित मानी जाती हैं ( १ ) शोणांशिकरक्तक्षय ( haemolytic jaundice ) (२) दात्रकोशीयरक्तक्षय ( sickle cell anaemia ) For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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