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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६२० विकृतिविज्ञान इस रोग में प्लीहा के महत्त्व को समझना होगा । ट्रोलैण्ड तथा ली ने प्लीहा में एक ऐसे तत्व का पता लगा लिया है जिसको यदि शशकों में अन्तःक्षिप्त कर दिया जावे तो बिम्बाणु संख्या ९०% तक घट जाती है । यह घटोतरी सहसा होती है। तथा सहसा ही वे फिर अपनी प्रकृत संख्या में आ जाते हैं । बिम्बाणुओं के आकस्मिक हास के कारण रक्तस्रवणकाल तो बढ़ जाता है पर नीलोहा की उत्पत्ति नहीं होती । इस तत्त्व को वे थ्राम्बोसाइटोपैन ( thrombocytopen ) कहते हैं | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस रोग में जो लगातार रक्तस्राव होता है उसका कारण रक्त में बिम्बाणुओं की कमी माना जाना चाहिए । जो लोग यह समझते हैं कि रक्त के रुकने का कारण आतंचन ( coagulation ) होता है वे नीलोहा की दृष्टि से भूल करते हैं । क्योंकि कुछ ऐसे भी प्राणी हैं जिनके रक्त का आतंचन बिल्कुल न होने पर भी उनका रक्तस्राव थोड़े काल बाद बन्द हो जाता है । यह कैसे सम्भव है ? जब इस प्रश्न पर विचार करते हैं तो ज्ञात होता है कि रक्तवाहिनी की प्राचीर से ही तो रक्त निकलता है । वाहिनी प्राचीरों में जहाँ छेद हो गया है यदि इसे बन्द कर दिया जावे तब भी तो रक्तस्राव रुक सकता है । यह कार्य बिम्बाणु करते हैं । बिम्बाणु उस छेद को बन्द कर देते हैं वहाँ अभिलग्नकणों ( adhesive corpuscles ) के रूप कार्य करते हैं । जब ये बिम्बाणु बाह्य द्रव्य के सम्पर्क में आते हैं तो उनकी अभिलग्नता बहुत बढ़ जाती है और बिम्बाणुओं का समूह वहाँ एकत्र हो जाता है जो एक छोटे छिद्र को सरलतया बन्द करने का सामर्थ्य रखता है । जब बिम्बाणुओं की संख्या बहुत कम हो जाती है तो यह प्रसमूहन नहीं हो पाता जिससे रक्तस्रवणकाल अनायास बढ़ जाता है और यदि बाह्य धरातल पर बना आतंच रक्त के द्वारा घुलता चला जाय तो वह और भी बढ़ सकता है । इन बिम्बाणुओं का एक कार्य थ्रोम्बोप्लास्टीन ( thromboplastin ) का निर्माण करना भी है जो आतंच निर्माण प्रक्रिया में अच्छा भाग लेता है । पर इसके बनने के लिए बिम्बाणुओं की थोड़ी संख्या भी पर्याप्त कार्य करती है इसलिए आतंच काल में कोई हानि नहीं हो पाती । अधिक संख्या में जो बिम्बाणु शेष रह जाते हैं वे आतंच के प्रत्याकर्षण में भाग लेते हैं । यह प्रत्याकर्षण कैसे होता है वह तो अभी नहीं कहा जा सकता है पर उसमें बिम्बाणुओं की आवश्यकता पड़ती है । पर नीलोहा में बिम्बाणु संख्या थोड़ी होने से आतंच बन तो जाता है पर उसका प्रत्याकर्षण करने के लिए आवश्यक संख्या में बिम्बाणुओं की उपस्थिति न होने से उसका प्रत्याकर्षण नहीं हो पाता है । इसीलिए वह आतंच मृदु और श्लथ रहता है । इस प्रकार बिम्बाणुओं की संख्या की कमी रक्तस्रवणकाल की वृद्धि मृदु आतंच की उत्पत्ति और आतंच के प्रत्याकर्षण का अभाव तीनों को एक साथ बतलाने में समर्थ होती है । पर बिम्बाण्वल्पता के द्वारा यह होता है ऐसा मत प्रकट करने के लिए भी हम पर कोई महत्त्व का प्रमाण नहीं है क्योंकि हम देखते हैं कि प्लीहोच्छेद के बाद बिम्बपकर्ष लौट आने पर भी बिम्बाणुओं का गुण प्रसमूहन तथा प्रत्याकर्षण प्रकृतरूप प्राप्त कर For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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