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3081 Dharmasastra
261 Begins.-- fol. 16.
श्रीगणेशाय नमः॥ श्रीसरस्वत्यै नमः॥ श्रीगुरुभ्यो नमः॥
श्रीकृष्णमसमतंगजवदनं साधितविघ्नावलीसदनं गौरीहरयोस्तोकं पालितलोकं हृदालंबे ॥१॥ कल्याणवाणिनिजपाणिसरोजयुग्म संयोज्य देधि करवाणि तव प्रमाणं । मत्तुंडमंडललसदसनां गणं ते
नृत्याय निस्यमिदमस्तु रसानुसिक्तं ॥२॥ etc. Ends.-fol. 64b.
अंगीकार्या मस्कृतिनिस्तुषेयं कस्मादेवं पंडिताः प्रार्थयेई। क्षीरं पेयं नीरमेतद्विहाय को वा विज्ञं हंसमझोर्थयेत् ॥५८॥ इति श्रीमत् विठ्ठलदीक्षितविरचिता कुंडमंडपसिद्धिः संपूर्णा त्यक्त्वात्याद्विषमास्कृति द्विगुणयेन्मूलं समेतस्पते स्थक्वालब्धकृति तदाम्यविषमालब्धं द्विनिम्नं न्यसेत् । पंक्रया पंक्तिहते समेन्यविषमात्यक्त्वापवर्ग फलं . पंक्त्या तद्विगुणं न्यसेत् इति मुहुः पंक्तर्दलं स्यात्पदं ॥१॥ शके १७५८ दुर्मुख नाम संवत्सरे कार्तिककृष्णप्रतिपहिने इदं पुस्तकं
समातं ॥७॥ श्रीराम ॥२॥ References.-See No. 304.
25.
कुण्डमण्डपसिद्धिविवृति
Kuņdamaņdapasiddhivivsti No. 308
No. 1874-75 Size.- 101 in. by 4t in. Extent.- 20 leaves ; 16 lines to a page ; 38 letters to a line. Description.- Country paper; Devanāgari characters; several
handwritings; legible; two lines in black ink, on either border; marks of punctuation, names of authorities quoted and topics are tinged with red pigment; a small piece of paper (670 in by 317 in) written on one side and giving the portion of the text left out after line 9 of fol. 6", is found between foll. 5 and 6%; corrections made with yellow pigment; paper old, and musty.