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Jaing - Literature and Philosophy
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Ends.- fol. 324
पुनरपि चारित्र आदरह विशुद्ध हीर गुरु हाधि :: पंच मा(म)हात उच्चरह अठावीस ऋषिना साथि ६२ ऋषि मेघजी उद्योतांवजय नाम अनोपम दीध ऋषि गनो तम गुणविजय दीधं नाम परसिद्ध ६३ नाम थाप. अनुक्रमह कीधी श्रीगुरुराज . पाम्यो लाभ पुराह अतिघणो सार्या बहु तस काज ६४ भीहीरविजयसूर्गश्वर गुणवंत तस तणो शीस गिरुओ गुर्णावजयगणि गुरुआणा बहह निज सीस ६५ हम विनयी व(वि)गता विबुध संघविजयो पमणंति ,
सरस संबंध प्रोता सणइ पुगह बक्ता मन पांति ६६ . . ..... मुख संपजह मुणतां भवणि नासइंतस उचद्र .. . भणइ गुण इम निमावस्युं तस घरि हुइ गहगट्ट ६७ ।।
चंद्रकला उदपि निधि ( १६४९ ) परस मुशिर मास शुदि पंचमी उमरा रकि पूरण रचउ रास ६८ etc....
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राजऋषि दोय प्रातनं 1 आस्यान तस अभिराम । भणतां एह गुणतां मणतां मावह पामह अनंतखठाम । ।
प्रथ७५२।
इति श्रीअमरसमवाय)रसेनराजऋषिआस्यानक संपूर्ण । । । लिषितं संवत १६९७ वर्षे मा(न)शीर्षमासे शुक्लपक्षे दस(श)यां सुग्गुरुबासरे श्री दुभं भवतु ॥ श्रीः । कलस राग धन्यासी (भी)
श्रीवीरथी अनुक्रमा पाटा तगछ शुद्ध परंपरा।। भीविजयदान गुरु हीर 'जेसंगजी विजयतिलक सूरीश्वरा । तस पटोधर उदयगिरि जिम उदयो अविचल दिनकर। अभिनयो गोतम भाषिक बंदो श्रीविजयाणद सूरीश्वरू। ८२। संप्रति बिचरा पुगप्रधान गुरु छत्रीस गुण अंगइ धरह । साधुपुरंदरमहिमामंदिर अस्तवाणि मुखि उचरह। भीहीरविजयसूदिसेवक गुणविजयगणि निवरू। तस शीस संथुण्या राजऋषि दो सकलसंघमंगलकरू । ८३।
इति रासनी चूलिका संपूर्णा कल्याणमस्तु ।
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