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कैलास श्रुतसागर ग्रंथ सूची स्तवनचौवीसी, मु. मोहनरुचि, मा.गु., पद्य, आदि: श्रीऋषभ जिणेसर साहिब; अंति: मोहनरूच गुण गाया रे, स्तवन-२४. ६०७६०. (+) सारस्वतव्याकरण की टीका-प्रथम वृत्ति, अपूर्ण, वि. १९वी, श्रेष्ठ, पृ. १३९-६(३८,४३ से ४७)=१३३, प्र.वि. टिप्पण युक्त विशेष पाठ-संशोधित-पदच्छेद सूचक लकीरें., जैदे., (३०x१२, ११४३७-४४). सारस्वत व्याकरण-दीपिका टीका, आ. चंद्रकीर्तिसूरि, सं., गद्य, वि. १६२३, आदि: नमोस्तु सर्वकल्याणपद; अंति:
(-), ग्रं. ७५००, (प्रतिअपूर्ण, पू.वि. "आमिह ह्रां ह्रौं हृद्वि ऋ" पाठ से "हे कर्त्तः शेष सुकरं शशि" पाठ तक, "नदी ३१
___टा इयं० स्वर० ४१सू" से "लोपो भवति ईकारे परे तु" पाठ तक नहीं है.) ६०७६१. बृहत्कल्पसूत्र सह टीका, नियुक्ति, नियुक्ति की टीका, लघुभाष्य व लघुभाष्य की टीका -खंड तृतीय, संपूर्ण,
वि. १९४१, वैशाख कृष्ण, १०, मध्यम, पृ. ३०८, ले.स्थल. राजपुर, प्रले. श्राव. लालचंद पूनमचंद प्राग्वाट; उप. आ. राजेंद्रसूरि, प्र.ले.पु. सामान्य, दे., (२७७१३, १८४४४).
बृहत्कल्पसूत्र, आ. भद्रबाहुस्वामी, प्रा., गद्य, आदिः (-); अंति: (-), प्रतिपूर्ण. बृहत्कल्पसूत्र-सुखावबोधा टीका, आ. मलयगिरिसूरि ; आ. क्षेमकीर्तिसूरि, सं., गद्य, आदि: (-); अंति: (-),
प्रतिपूर्ण. बृहत्कल्पसूत्र-नियुक्ति, आ. भद्रबाहुस्वामी, प्रा., पद्य, आदि: (-); अंति: (-), प्रतिपूर्ण. बृहत्कल्पसूत्र-नियुक्ति की टीका #, आ. मलयगिरिसूरि ; आ. क्षेमकीर्तिसूरि, सं.,प्रा., गद्य, आदि: (-); अंति:
(-), प्रतिपूर्ण. बृहत्कल्पसूत्र-नियुक्ति का लघुभाष्य #, ग. संघदासगणि क्षमाश्रमण, प्रा., पद्य, आदि: (-); अंति: (-), प्रतिपूर्ण. बृहत्कल्पसूत्र-नियुक्ति के लघुभाष्य की टीका #, आ. मलयगिरिसूरि ; आ. क्षेमकीर्तिसूरि, सं., गद्य, वि. १४वी, ___ आदि: (-); अंति: (-), प्रतिपूर्ण. बृहत्कल्पसूत्र-लघुभाष्य #, ग. संघदासगणि क्षमाश्रमण, प्रा., पद्य, आदिः (-); अंति: (-). प्रतिपूर्ण.
बृहत्कल्पसूत्र-भाष्य की टीका, आ. मलयगिरिसूरि ; आ. क्षेमकीर्तिसूरि, सं., गद्य, आदि: (-); अंति: (-), प्रतिपूर्ण. ६०७६६. (+) कल्पसूत्र, अपूर्ण, वि. १९वी, मध्यम, पृ. ४८-२०(१ से १७,१९,३२,४३)=२८, प्र.वि. संशोधित., जैदे., (२८x१२, ७४३६-३९). कल्पसूत्र, आ. भद्रबाहुस्वामी, प्रा., गद्य, आदि: (-); अंति: (-), (पू.वि. बीच-बीच के पत्र हैं., बीच-बीच के पाठांश
नहीं है.) ६०७६८. (+#) वाग्भटालंकार सह टिप्पण, संपूर्ण, वि. १५७३, कार्तिक शुक्ल, ११, श्रेष्ठ, पृ. २२, प्रले. मु. ब्रह्महीरा (गुरु
आ. रत्नकीर्तिसूरि); गुपि. आ. रत्नकीर्तिसूरि (गुरु आ. भुवनकीर्ति, सरस्वती गच्छ); आ. भुवनकीर्ति (गुरु आ. सकलकीर्ति भट्टारक, मूलसंघ); आ. सकलकीर्ति भट्टारक (गुरु आ. पद्मनंदि, सरस्वतीगच्छ-मूलसंघ-बलात्कारगण); गृही. श्राव. धनराज ब्रह्मचारी; दत्त. जै.क. रत्नचंद्र भट्टारक, प्र.ले.पु. मध्यम, प्र.वि. संवत १६९८ चैत्र वद २ बुधवार को ग्रन्थ अर्पित करने का उल्लेख मिलता है., पदच्छेद सूचक लकीरें-संधि सूचक चिह्न-अन्वय दर्शक अंक युक्त पाठ-संशोधित. टीकादि का अंश नष्ट है, जैदे., (२९x१३, ८४३२).
वाग्भटालंकार, जै.क. वाग्भट्ट, सं., पद्य, वि. १२वी, आदि: श्रियं दिशतु; अंति: सारस्वतध्यायिनः, परिच्छेद-५. वाग्भटालंकार-टिप्पण, सं., गद्य, आदि: (अपठनीय); अंति: मंत्रानुस्मरणशीलाः, (वि. प्रत की किनारी खंडित होने के
कारण आदिवाक्य अवाच्य है.) ६०७६९. ज्योतिषसार संग्रह, संपूर्ण, वि. १९वी, श्रेष्ठ, पृ. २०, जैदे., (२५.५४१२.५, ५४२४).
ज्योतिषसार, आ. नरचंद्रसूरि, सं., पद्य, आदि: अहँतजिनं नत्वा; अंति: (-), (अपूर्ण, पू.वि. प्रतिलेखक द्वारा अपूर्ण.,
श्लोक-५३ तक लिखा है.) ६०७७०. (#) नारचंद्र ज्योतिष, अपूर्ण, वि. १९वी, मध्यम, पृ. ४१-२२(१ से १६,२९ से ३४)=१९, प्र.वि. अक्षर पत्रों पर आमने-सामने छप गए हैं, जैदे., (२५.५४१२.५, १५४३८-४६). ज्योतिषसार, आ. नरचंद्रसूरि, सं., पद्य, आदि: (-); अंति: (-), (पू.वि. प्रारंभ व अंत के पत्र नहीं हैं., श्लोक-३० अपूर्ण
से श्लोक-२१६ अपूर्ण तक है.)
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