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हस्तलिखित जैन साहित्य १.१.१४ ५६०७२. (+#) पन्नवणासूत्र सह कठिनपद टिप्पण, पूर्ण, वि. १६३०, फाल्गुन शुक्ल, १३, शुक्रवार, मध्यम,
पृ. ३०१-१(१३५)=३००, ले.स्थल. आगरा, प्रले. पं. लब्धिवर्धन (खरतरगच्छ, क्षेमशाखा); अन्य. श्राव. परवत; श्राव. आटू; श्राव. गजू; राज्ये गच्छाधिपति जिनसिंहसूरि (गुरु आ. जिनचंद्रसूरि, खरतरगच्छ); अन्य. श्राव. हीरानंद, प्र.ले.पु. मध्यम, प्र.वि. श्रीलब्धिवर्द्धनगणि के शिष्य शिवचंद्र के द्वारा वि.१६९९ में इस ग्रंथ के ऊपर योग किए जाने का उल्लेख है., टिप्पण युक्त विशेष पाठ-संशोधित-पदच्छेद सूचक लकीरें. टिप्पणक का अंश नष्ट, जैदे., (२६.५४११.५, ११४४२). प्रज्ञापनासूत्र, वा. श्यामाचार्य, प्रा., गद्य, आदि: नमो अरिहंताण० ववगय; अंति: सुही सुहं पत्ता, पद-३६, सूत्र-२१७६,
ग्रं. ७७८७, (पू.वि. द्वार-५ का किंचित् पाठ अपूर्ण है.)
प्रज्ञापनासूत्र-कठिनपदटिप्पण", सं.,मा.गु., गद्य, आदि: (-); अंति: (-). ५६०७३. (+) ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र सह टबार्थ, त्रुटक, वि. १९वी, मध्यम, पृ. ३७१-१५८(१ से ५९,६१ से ६२,६७ से ७०,७४ से
७७,७९ से ८१,८३,१७७ से १७८,१९७,२२५ से २३९,२५६,२७८ से ३३५,३५६ से ३६३)+१(३३९)=२१४, पू.वि. बीच-बीच के पत्र हैं., प्र.वि. पदच्छेद सूचक लकीरें-टिप्पण युक्त विशेष पाठ., जैदे., (२६४११, ६x४४).
ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र, आ. सुधर्मास्वामी, प्रा., प+ग., आदिः (-); अंति: (-), (पू.वि. मेघकुमार दीक्षा प्रसंग से पुष्पचूला
__ आर्या प्रसंग तक है व बीच-बीच के पाठांश नहीं है.)
ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र-टबार्थ *, मा.गु., गद्य, आदि: (-); अंति: (-). ५६०७४. (+) सूयगडांगसूत्र सह टबार्थ- श्रुतस्कंध २, संपूर्ण, वि. २०वी, श्रेष्ठ, पृ. २०१, प्रले. मु. प्रतापचंदजी ऋषि (गुरु
मु. नवलचंद्रजी ऋषि); गुपि. मु. नवलचंद्रजी ऋषि (गुरु आ. रूपचंद्रजी स्वामी), प्र.ले.पु. सामान्य, प्र.वि. टिप्पण युक्त विशेष पाठ., दे., (२५.५४११, २-४४१९-३१).
सूत्रकृतांगसूत्र, आ. सुधर्मास्वामी, प्रा., प+ग., आदि: (-); अंति: विहरति त्ति बेमि, ग्रं. १३०००, प्रतिपूर्ण.
सूत्रकृतांगसूत्र-टबार्थ, मा.गु., गद्य, आदि: (-); अंति: इम हुंकहुंछु, ग्रं. ९५००, संपूर्ण. ५६०७५. (+#) कल्पसूत्र सह टबार्थ व अंतर्वाच्य, संपूर्ण, वि. १७९४, वैशाख शुक्ल, १३, रविवार, मध्यम, पृ. १९६, ।
ले.स्थल. बोरखेडी, प्रले. पं. नेमविजय गणि; पठ. ग. माणेकविजय, प्र.ले.पु. सामान्य, प्र.वि. संशोधित-टिप्पण युक्त विशेष पाठ-द्विपाठ. कुल ग्रं. १२१६, अक्षर पत्रों पर आमने-सामने छप गए हैं, अक्षरों की स्याही फैल गयी है, प्र.ले.श्लो. (१) यादृशं पुस्तकं दृष्ट्वा, (१२) मंगलं लेखकानांच, (४७९) भग्न पृष्टि कटी ग्रीवा, (१०२७) जलात् क्षेत् तैलाद्रक्षे, जैदे., (२५४११, ५४३६). कल्पसूत्र, आ. भद्रबाहुस्वामी, प्रा., गद्य, आदि: नमो अरिहंताणं नमो; अंति: अज्झयणं सम्मत्तं, व्याख्यान-९,
ग्रं. १२१६. कल्पसूत्र-टबार्थ*, मा.गु., गद्य, आदि: ते वर्तमान अवसर्पिणी; अंति: भगवंतई उपदेस्यं.
कल्पसूत्र-अंतर्वाच्य , मा.गु., गद्य, आदि: प्रणम्य तीर्थनेतारं; अंति: (-). ५६०७६. (+) कल्पसूत्र सह टबार्थ व व्याख्यान+कथा, अपूर्ण, वि. १८वी, मध्यम, पृ. १९७-४२(१ से ९,२३ से २५,९७ से ११३,१६३ से १७४,१८३)=१५५, पू.वि. बीच के पत्र हैं., प्र.वि. संशोधित., जैदे., (२७४११, ४४२९). कल्पसूत्र, आ. भद्रबाहुस्वामी, प्रा., गद्य, आदि: (-); अंति: (-), (पू.वि. पीठिकागत नागकेतु कथा अपूर्ण तथा
नवकारमंत्र से सामाचारी अपूर्ण तक है व बीच-बीच के पाठांश नहीं है.) कल्पसूत्र-टबार्थ*, मा.गु., गद्य, आदि: (-); अंति: (-).
कल्पसूत्र-व्याख्यान+कथा*,मा.गु., गद्य, आदि: (-); अति: (-). ५६०७७. (+#) आचारांग सह बालावबोध- श्रुतस्कंध २, अपूर्ण, वि. १८४३, वैशाख शुक्ल, ९, मध्यम, पृ. १४८-३०(१ से
३०)=११८, ले.स्थल. नागपुर, प्र.वि. टिप्पण युक्त विशेष पाठ-संशोधित. कुल ग्रं. ८९२५, अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२५४११.५, ६४३७).
आचारांगसूत्र, आ. सुधर्मास्वामी, प्रा., प+ग., आदिः (-); अंति: विमुच्चइ त्ति बेमि, (प्रतिअपूर्ण, पू.वि. पिंडेषणा __ अध्ययन उद्देश-७ अपूर्ण से है.) आचारांगसूत्र-बालावबोध, आ. पार्श्वचंद्रसूरि, मा.गु., गद्य, आदि: (-); अंति: सांभलउ परं परार्थे, प्रतिअपूर्ण.
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