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महाह.
हस्तलिखित जैन साहित्य १.१.१४
३८५ कल्पसूत्र-टबार्थ*मा.गु., गद्य, आदि: चउत्रीस अतिशय करी; अंति: (-), पृ.वि. अंत के पत्र नहीं हैं. कल्पसूत्र-व्याख्यान+कथा *, मा.गु., गद्य, आदि: (-); अंति: (-), (पू.वि. प्रारंभ व अंत के पत्र नहीं हैं., पीठिका व
व्याख्यान-७ के बाद के पाठ नहीं हैं) ५८४८७. (+) कल्पसूत्र सह टबार्थ+व्याख्यान+कथा, अपूर्ण, वि. १७१९, आश्विन शुक्ल, १५, बुधवार, श्रेष्ठ, पृ. १६१-२४(१,१३ से
३१,३६ से ३९)=१३७, प्र.वि. त्रिपाठ-टिप्पण युक्त विशेष पाठ-संशोधित-पदच्छेद सूचक लकीरें., प्र.ले.श्लो. (५०९) यादृशं पुस्तके दृष्ट, जैदे., (२४.५४११, ६४३५). कल्पसूत्र, आ. भद्रबाहस्वामी, प्रा., गद्य, आदि: नमो अरिहंताणं नमो; अंति: उवदंसेइ त्ति बेमि, व्याख्यान-९.
ग्रं. १२१६, (पू.वि. बीच-बीच के पत्र नहीं हैं., बीच-बीच के कुछ पाठ नहीं हैं.) कल्पसूत्र-टबार्थ+व्याख्यान+कथा, आ. सोमविमलसूरि, मा.गु.,सं., गद्य, आदि: (-); अंति: पर्युषणाकल्प कहीइ,
(पू.वि. प्रारंभ व बीच-बीच के पत्र नहीं हैं., प्रारम्भ व बीच-बीच के पाठ नहीं हैं.) ५८४८८. (+) समवायांगसूत्र सहटबार्थ, संपूर्ण, वि. १९वी, श्रेष्ठ, पृ. १४४, प्र.वि. संशोधित., जैदे., (२४.५४११.५, ५-७४२८-३३).
समवायांगसूत्र, आ. सुधर्मास्वामी, प्रा., गद्य, आदि: सुयं मे आउसं तेणं; अंति: अज्झयणंति त्तिबेमि, अध्ययन-१०३,
सूत्र-१५९, ग्रं. १६६७. समवायांगसूत्र-टबार्थ, वा. मेघराजजी, मा.गु., गद्य, वि. १७उ, आदि: देवदेवं जिनं नत्वा; अंति: देखाड्यउ भगवंतइ
कहिउ. ५८४८९. (+) आचारांगसूत्र सह प्रदीपिका टीका व नियुक्ति, संपूर्ण, वि. १७२९-१७७९, मध्यम, पृ. २०१, कुल पे. २,
ले.स्थल. पत्तनपुर, अन्य. सा. जयतश्री आर्या (गुरु सा. सकला आर्या); गुपि. सा. सकला आर्या; अन्य. ग. ऋद्धिविमल, प्र.ले.पु. सामान्य, प्र.वि. साध्वी जयतश्री के द्वारा यह प्रत पुण्य हेतु चित्कोश में रखायी गई., त्रिपाठ-पदच्छेद सूचक लकीरें., जैदे., (२४.५४११, १-११४३५-४८). १. पे. नाम. आचारांगसूत्र सह प्रदीपिका टीका, पृ. १आ-१९३अ, संपूर्ण, वि. १७२९, नंदनेत्रमुनिचंद्रे, पौष कृष्ण, ९,
सोमवार. आचारांगसूत्र , आ. सुधर्मास्वामी, प्रा., प+ग., आदि: सुयं मे आउसं० इहमेगे; अंति: विमुच्चति त्ति बेमि, अध्ययन-२५. आचारांगसूत्र-प्रदीपिका टीका, गच्छा. जिनहंससूरि, सं., गद्य, वि. १५७३, आदि: शासनाधीश्वरो जीयाद्व; अंति:
वीरशासनं जयति सफला. २.पे. नाम. आचारांगसूत्र की नियुक्ति, पृ. १९३आ-२०१आ, संपूर्ण, वि. १७२९, ग्रहाशिवमुनेंदु, माघ कृष्ण, ५. आचारांगसूत्र-नियुक्ति, आ. भद्रबाहुस्वामी, प्रा., पद्य, आदि: वंदितु सव्वसिद्धे; अंति: तयस्स उवरिं भणीदामि,
गाथा-३६८. ५८४९०. कौमुदी कथा, अपूर्ण, वि. १७९१, कार्तिक शुक्ल, ९, गुरुवार, श्रेष्ठ, पृ. १२२-२(१ से २)=१२०, ले.स्थल. सोपुर, प्रले.
चतुरदास वैष्णव; अन्य. मु. तिलोकचंद (गुरु मु. हेमराजजी, विजयगच्छ); गुपि. मु. हेमराजजी (गुरु मु. दयालसागर, विजयगच्छ); मु. दयालसागर (गुरु आ. विनयसागरसूरि, विजयगच्छ); आ. विनयसागरसूरि (गुरु आ. सुमतसागरसूरि, विजयगच्छ); आ. सुमतसागरसूरि (गुरु आ. कल्याणसागरसूरि, विजयगच्छ); आ. कल्याणसागरसूरि (गुरु आ. गुणसागरसूरि, विजयगच्छ); आ. गुणसागरसूरि (गुरु आ. पद्मसागरसूरि, विजयगच्छ); आ. पद्मसागरसूरि (गुरु आ. खेमासागरसूरि, विजयगच्छ); आ.खेमासागरसूरि (गुरु मु. धर्मदास, विजयगच्छ); मु. धर्मदास (गुरु मु. विजयराज, विजयगच्छ); मु. विजयराज (विजयगच्छ); अन्य. मु. खेमचंद (विजयगच्छ); मु. हरिचंद (विजयगच्छ), प्र.ले.पु. अतिविस्तृत, प्र.ले.श्लो. (२६) भग्न पृष्टिं कटी ग्रीवा, जैदे., (२३४१०.५, १०४३३-४०).
कौमुदी कथा, सं., पद्य, आदि: (-); अंति: धर्मार्थं कौमुदीपर, कथा-८, (पू.वि. द्वितीय कथा अपूर्ण से है.)
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