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Catalogue of Sanskrit and Prakrit Manuscripts, Pt. XVIII (Appendix)
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धारण करता भया सो सोभप्रभ जो है तानै पा मुनिनि की परम प्राज्ञा रूप सूक्तमुक्तावली नाम ग्रन्थ जो है सो रचित भया, सो जयवंत होउ ॥ अथ वचनिका करणे वाला अंतिम मंगल करै है :
॥छप्पै ॥
दोष पाठ दश रहित सहित गुरग द्रव्य वेद वर, वसु गुण मंडित सिद्ध सूरि षट् तीन भाव धर । पंच वीस गुण मूल साधे शिव का .... .... .... .... .... .... .... .... जिन वाणी जिन चैत्य गृह, जिन मारग उर धरो। मंगल उत्तिम शरण रा, विघ्न हरो मंगल करो ॥१॥
। सवैया ।। जालौं नभ मांहि चन्द्र सूरज प्रकाश करै, भूतल तं गंगा सिन्धु नदी वहै जबलौं । कुलगिरि सहित जोलौं सुरगिरि प्रगट रहै, क्षितितल सत्त्व जिनराज वृष धवलौं । जबलौं शिव ज्ञान अचल सिद्ध मांहि राजत है, जब लौं प्रसंग सिन्ध भूतल मैं सबलौं। ऐसी विधि धारि ग्रन्थ सूक्तमुक्तावली के देशभाषामय बच निका जयवन्त रहौ तबलौं ॥२॥
॥ दोहा ।।
सुखी होहु राजा प्रजा, सुखी होहु सब लोग। सुखी होहु चउसंघ फुनि, धर्मवृद्ध करि भोग ॥३॥ अब कछु भाषा होन के, लिखौं भावविधि जोग । देश भदावर नगर शुभ, नाम अटेर मनोग ॥४॥ तहां श्रावक बहुते वसै, जाति लमैचू जानि । अमरसिंह तसु तीन सुत, विचलो सुन्दर मानि ।।५।। कर्म विहायो गति उदै, ग्रहत निकसे सोय आइ वसे मालव विष, इन्द्रावतिपुर जोय ॥६॥
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