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२.२ प्रत दुर्वाच्य, अवाच्य, अशुद्ध पाठ वाली होने पर प्रत क्रमांक के बाद का चिह्न लगाया गया है. इनका उल्लेख
'प्र.वि.' में प्राप्त होगा. २.३ कट, फट जाने आदि के कारण हुई प्रत व पाठ की विविध अवदशाओं की जानकारी कराने के लिए प्रत क्रमांक
के अंत में (#) का चिह्न लगाया गया है. सूची में इनका उल्लेख 'दशा वि.' के तहत प्राप्त होगा. ३. प्रतनाम : यह नाम प्रत में रही कृति/कृतियों की प्रत में उपलब्धि तथा कृति/कृतियों के प्रत में उपलब्ध नाम के आधार
से बना कर दिया गया है. यथा- बारसासूत्र, आवश्यकसूत्र सह नियुक्ति व टीका, कल्पसूत्र सह टबार्थ व पट्टावली, गजसुकुमाल रास व स्तवन संग्रह, स्तवन संग्रह, जीवविचार, कर्मग्रंथ आदि प्रकरण सह टीका... इत्यादि. प्रत माहिती
स्तर व पेटाकृति माहिती स्तर में दिए गए नामों से सम्बन्धित विस्तृत विवरण प्रथम खंड के पृष्ठ ३३-३४ पर देखें. ४. पूर्णता - हस्तप्रत की उपयोगिता तय करने में सुविधा रहे, तदर्थ स्पष्टता लाने की बात को ध्यान में रखते हुए, हस्तप्रत
प्रतिलेखक द्वारा संपूर्ण-अपूर्ण जिस किसी अंश में लिखी गई कृति के पत्रों की भौतिकरूप से उपलब्धता मात्र को दर्शाने वाली पूर्णता संबंधी सूचना निम्न प्रकार से वर्गीकृत करके दी गई है. १. संपूर्ण : जितने भी लिखे गये थे, सभी पत्र उपलब्ध. २. पूर्ण : मात्र एक देश से अत्यल्प अपूर्ण प्रतों को अपूर्ण न कह कर 'पूर्ण' संज्ञा दी गई है. ३. अपूर्ण : प्रत के आदि/अंत या/एवं मध्य का एक बड़ा अंश अनुपलब्ध हो. ४. त्रुटक : बीच-बीच के अनेक पत्र अनुपलब्ध हों. यदि प्रत 'संपूर्ण नहीं है तो उसकी विशेष सूचना 'पृष्ठ माहिती' - 'पृ.' के तहत एवं पूर्णता विशेष - 'पू. वि' के तहत दी गई है. इसके अलावा पेटाकृति स्तर के पू. वि' एवं कृतिस्तर के 'पू. वि' के तहत भी उपयोगी सूचना
मिल सकती है. ५. प्रतिलेखन संवत : प्रत में प्रतिलेखक द्वारा दिया गया विक्रम, शक आदि संवत् उपलब्ध हो तो वही वास्तविक रूप से
दिया गया है, अन्यथा लेखन शैली, अक्षरों की लाक्षणिकता आदि के आधार पर विक्रम संवत् के अनुमानित शतक का उल्लेख किया गया है. इसके बाद प्रत में यथोपलब्ध वर्षसंख्या वाचक सांकेतिक शब्द - जो कि 'अंकानां वामतो गतिः' नियम से पढ़े जाते हैं - दिए गए हैं. तत्-पश्चात् वर्ष के संबंध में यदि कोई बात विचारणीय अथवा शंकास्पद लगी हो तो तत् सूचक '?' प्रश्नार्थ दिया गया है. उसके बाद मासनाम, अधिकमास संकेत, पक्ष, तिथि, अधिक तिथि संकेत व वार यथोपलब्ध क्रमशः दिए गए हैं. क्वचित् यथोपलब्ध वर्ष की एक अवधि भी दी गई है कि इन वर्षों के बीच यह
प्रत लिखी गई है. ६. प्रत दशा प्रकार ('प्र. दशा') : श्रेष्ठ, मध्यम, जीर्ण. दशा सम्बन्धी विशेष माहिती अनुच्छेद १४, 'दशा वि.' के अंतर्गत
दी गई है. ७. पृष्ठ माहिती (पृ.) : प्रत के प्रथम व अंतिम उपलब्ध पृष्ठांक, घटते-बढ़ते पृष्ठ का योग तथा पृष्ठांक एवं कुल उपलब्ध
पृष्ठ, इतनी सूचनाएँ यहाँ दी गई हैं. यथा - १ से ५०-४ (५, ७, १५, २७) = ४६; ५ से ६०-३ (३*, १७, १८) = ५३; ५ से ६०-३ (३*, १७, २८) + २ (४, ३५) = ५५. यहाँ अंक पर * का चिह्न पत्रांक लेखन में हुई स्खलना के कारण
अवास्तविक घटते पत्र का सूचक है एवं '-' व '+' के चिह्न घटते व दुहराए हुए बढ़ते पत्र के सूचक है. ८. कुल पेटाकृति : प्रत में यदि पेटाकृतियाँ हो तो उनका कुल योग यहाँ दिया गया है. ९. पूर्णता विशेष (पू.वि.) : प्रत प्रारंभ से अंत तक में भौतिकरूप से पत्र किसी कारण से अनुपलब्ध हो तो, यहाँ
मात्र अंतिम भाग नहीं है, उसकी स्पष्टता दी गई है. इसके अतिरिक्त घटते पत्रों के विषय में 'पृ.' के तहत दी गई विद्यमान पत्रों की सूचना से पता चल ही जाता है. अतः उन घटते पत्रों का उल्लेख नहीं किया गया है. जिस प्रत की सूचना में पेटाकृतियों की सूचना नहीं है, ऐसी प्रत संपूर्ण नहीं होने पर, उस में यदि कृति का मूलांश व टीका आदि शाखांश समानरूप से उपलब्ध/अनुपलब्ध हो, तो उसका भी यथाशक्य स्पष्टतापूर्वक यहाँ उल्लेख किया गया है. यथा- कल्पसूत्र सह टबार्थ व बालावबोध. प्रत में तीनों कृतियों हेतु समानरूप से कल्पसूत्र व्याख्यान ३ से ५ नहीं है, तो इसका उल्लेख यहाँ किया गया है. इसी प्रकार अन्य अनुपलब्ध अंशों की स्पष्टता यहाँ दी गई है. किंतु, मूल व टीका आदि शाखांश प्रत्येक की उपलब्धि/अनुपलब्धि भिन्न-भिन्न हो
vii
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