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प्राक्कथन
कैलास श्रुतसागर ग्रंथसूची प्रकाशन के अविरत सिलसिले में कैलासश्रुतसागर ग्रंथसूची के षष्ठ व सप्तम रत्न का प्रकाशन हमारे लिए गौरव की बात है.
विशेष खुशी की बात है कि संस्था द्वारा अपनाए गए श्रेष्ठता की ओर निरंतर सुधार व विकास के अभिगम से प्रेरित होकर खण्ड ३ के प्रकाशन के बाद चतुर्थ व पंचम खंड में सूचनाओं की प्रस्तुति में अनेक सुधार किये गये थे. इसी सिलसिले को जारी रखते हुए अध्येताओं की सुविधा के लिए, छटे खंड से प्रत, पेटांक व कृति यदि किसी तरह अपूर्ण हो तो उस अपूर्णता को और ज्यादा स्पष्ट रूप से बताने वाली पृष्ठों की उपलब्धता सूचक सूचनाएँ भी दी गई है. ताकि उपयोगिता का निर्णय सुगम हो सकें.
आशा है यह नई प्रस्तुति विशेष उपयोगी सिद्ध होगी.
वर्तमान कार्य के परिणाम स्वरूप प्राकृत, संस्कृत व मारुगुर्जर आदि देशी भाषाओं में मूल व व्याख्या साहित्य की छोटी-बड़ी कृतियाँ प्रचुर संख्या में अप्रकाशित ज्ञात हो रही है. इनमें से अनेक कृतियाँ तो बड़ी ही महत्वपूर्ण हैं. अनेक महत्व के विद्वानों की कृतियाँ भी अद्यावधि अज्ञात व अप्रकाशित हैं, ऐसा स्पष्ट जान पड़ता है. खंड ७ के ह. प्र. क्रमांक २८३०१ से एक से चार पत्रों की लघु प्रतें प्रारंभ होती है. सामान्यतः ऐसी प्रतें कम महत्त्व की समझकर जत्थे में बांधकर उपेक्षणीय सी रख दी जाती है. लेकिन खंड ७ के परिशिष्ट को देखने से पता चलेगा कि आश्चर्यजनक रूप से ऐसी प्रतों में से भी प्रचूरमात्रा में अप्रकाशित लघु कृतियाँ प्राप्त हुई है. इन लघु प्रतों का वर्गीकरण से लगाकर सूचीकरण तक का सारा कार्य बडा कष्टसाध्य होता है, लेकिन उसका यह सुंदर परिणाम बड़ा ही संतोष दे रहा है. उत्तराध्ययनसूत्र व कल्पसूत्र आदि आगमों की अनेक टीकाएँ व प्राकृत, संस्कृत भाषा के अनेक प्रकरण, कुलक व चरित्र आदि प्रकार के ग्रंथ अप्रकाशित प्रतीत हुए हैं. इसी तरह श्री ज्ञानसारजी रचित अनेक नई कृतियों के साथ एक पदसंग्रह जो कि आनंदघन पदसंग्रह, चिदानंदबहोत्तरी की याद दिलाता है, उसकी भी एक अप्रकाशित प्रति प्राप्त हुई हैं. साथ ही पू. हरिभद्रसूरि, सिद्धसेनदिवाकरसूरि, उपा. यशोविजयजी, उपा. सकलचंद्रजी, आ. ज्ञानविमलसूरि, कविराज दीपविजयजी, जिनहर्ष आदि की भी छोटी-बड़ी रचनाओं का भी प्रायः सर्वप्रथम पता चला है.
इस सूचीपत्र में हस्तप्रत, कृति व विद्वान/व्यक्ति संबंधी जितनी भी सूचनाएँ समाविष्ट की गई हैं, उन सब का विस्तृत विवरण व टाइप सेटिंग सम्बन्धी सूचनाएं पृष्ठ vi एवं प्रयुक्त संकेतों का स्पष्टीकरण पृष्ठ xii पर मुद्रित है.
जैन साहित्य एवं साहित्यकार कोश परियोजना के अन्तर्गत शक्यतम सभी जैन ग्रंथों व उनमें अन्तर्निहित कृतियों का कम्प्यूटर पर सूचीकरण करना; एक बहुत बड़ा महत्वाकांक्षी कार्य है. इस परियोजना की सबसे बड़ी विशेषता है, ग्रंथों की सूचना पद्धति. अन्य सभी ग्रंथालयों में अपनायी गई, मुख्यतः प्रकाशन और पुस्तक इन दो स्तरों पर ही आधारित, द्विस्तरीय पद्धति के स्थान पर, यहाँ बहुस्तरीय सूचना पद्धति विकसित की गई है. इसे कृति, विद्वान, प्रत, प्रकाशन, सामयिक व पुरासामग्री इस तरह छ: भागों में विभक्त कर बहुआयामी बनाया गया है. इस में प्रत, पुस्तक, कृति, प्रकाशन, सामयिक व एक अंश में संग्रहालयगत पुरासामग्री - इन सभी का अपने-अपने स्थान पर महत्व कायम रखते हुए भी इन सूचनाओं को परस्पर संबद्धकर एकीकृत कर दिया गया है.
समग्र कार्य दौरान पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् पद्मसागरसूरीश्वरजी तथा श्रुताराधक मुनिराज श्री अजयसागरजी की ओर से मिली प्रेरणा व प्रोत्साहन ने इस जटिल कार्य को करने में हमें सदा उत्साहित रखा है. साथ ही पूज्यश्री के अन्य शिष्य-प्रशिष्यों की ओर से भी हमें सदा सहयोग व मार्गदर्शन मिलता रहा है, जिसके लिए संपादक मंडल सदैव आभारी रहेगा. इस ग्रंथसूची के आधार से सूचना प्राप्त कर श्रमणसंघ व अन्य विद्वानों के द्वारा अनेक बहुमूल्य अप्रकाशित ग्रंथ प्रकाशित हो रहे है, यह जान कर हमारा उत्साह द्विगुणित हो जाता है; हमें हमारा श्रम सार्थक प्रतीत होता है.
प्रतों की विविध प्रकार की प्राथमिक सूचनाएँ कम्प्यूटर पर प्रविष्ट करने एवं प्रत विभाग में विविध प्रकार से सहयोग करने हेतु श्री संजयभाई सोमाभाई गुर्जर तथा ग्रंथालय विभाग के श्री दिलावरसिंह प्रह्लादजी विहोल एवं श्री परबतभाई ठाकोर आदि सभी सहकार्यकरों को त्वरा से संदर्भ पुस्तकें तथा प्रतें उपलब्ध कराने हेतु हार्दिक धन्यवाद.
सूचीकरण का यह कार्य पर्याप्त सावधानीपूर्वक किया गया है, फिर भी जटिलता एवं अनेक मर्यादाओं के कारण क्वचित् भूलें रह भी गई होंगी. इन भूलों के लिए व जिनाज्ञा विरूद्ध किसी भी तरह की प्रस्तुति के लिए हम त्रिविध मिच्छा मि दुक्कडं देते हैं. विद्वानों से करबद्ध आग्रह है कि इस प्रकाशन में रही भूलों की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करें एवं इसे और बेहतर बनाने हेतु अपने सुझाव अवश्य भेजें, जिससे अगली आवृत्ति व अगले भागों में यथोचित सुधार किए जा सकें.
- संपादक मंडल
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