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४. एक पद लोप हो जाने से. जैसे चित्रसेन-पद्मावती रास हेतु चित्रसेन रास. ५. कृति शैली दर्शक शब्द के फेरफार के कारण. जैसे शालिभद्र चौपाई का शालिभद्र रास. ६. कृति के विषय की विशिष्टता दर्शक शब्द युक्त होने पर. यथा पुण्ये हंसराजवच्छराज चौपाई इत्यादि. ७. कृति रचना की विशेषता को दर्शाता नाम. यथा चित्रकाव्यबद्ध पार्श्वजिन स्तोत्र, क्रियागुप्त महावीर जिनस्तव,
यमकबद्ध पंचजिन स्तोत्र आदि. ८. स्थलादि विशेषण दर्शक नाम. यथा जिराउलामंडन पार्श्वजिन स्तोत्र. मुख्य नाम पर एकाधिक प्रचलित नाम विवेकाधीन आवश्यकता तथा उपयोगितानुसार प्रविष्ट किये जाते हैं. इससे
किसी भी प्रकार के नाम से शोध आने पर सूचना सहजता से उपलब्ध की जा सकती है. कृतियों का नामाभिधान करते समय एकरूपता व स्पष्टता हेतु निम्नलिखित मुद्दों पर विशेष ध्यान रखा गया है : १. गद्य, पद्य किसी भी तरह की संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश - प्रस्थापित कृतियों हेतु व मारुगूर्जर व हिंदी कुल की भाषा
की प्रस्थापित पद्य कृतियों हेतु जिस भाषा की कृति हो उसी भाषा में यदि कृति नाम मिले तो मुख्य नाम वही रखा गया है. जैसे सिरिसिरिवाल कहा, सुपासनाह चरिय, अक्षरबावनी, आचारछत्तीसी. परंतु आगमिक कृतियों के नाम
संस्कृत में ही दिए गए हैं. २. आवश्यक सूत्र के अंतर्गत आनेवाले वंदित्तु, पगामसज्झाय, पक्खीसूत्र इत्यादि नामों को स्वतंत्र न लिखकर सामान्यतः
इनके पूर्व योग्यरूप से 'आवश्यकसूत्र-' शब्द रखा गया है. ३. कृतिनाम में मात्र कवित्त, पद, सज्झाय, स्तोत्र, स्तवन जैसा कोई जनरल कृति नाम प्रविष्ट नहीं किया जाता बल्कि
इन नामों के साथ सम्बन्धित तीर्थंकर, भगवान, देव-देवी, गुरू, व्यक्ति आदि का नाम, अथवा स्थल का नाम, अथवा कोई विषय आदि बनता हो तो उसका संकेत करते हुए कृति का नाम लिखा गया है. जैसे- आत्मनिंदागर्भित, औपदेशिक, आध्यात्मिक, १० भव इत्यादि. कुछ कृतियों में इन तीनों में से एकाधिक प्रकार मिल सकते हैं. जैसेपार्श्वजिन स्तवन-शंखेश्वर आत्मनिंदागर्भित. ४. कृति नाम में पद, गीत और कवित्त ये तीन शब्द हों तो विशेष ध्यान दिया गया है. क्योंकि ऐसी कृति स्तवन अथवा
सज्झाय भी हो सकती है. स्तवन/सज्झाय में सामान्यतः कम से कम पाँच गाथाएँ होनी चाहिए. स्तवन सामान्य रूप से किसी तीर्थंकर, भगवान को सम्बोधित करते हुए उनके गुणगान-महिमा आदि से युक्त होता है. जबकि सज्झाय में प्रायः उपदेश ही होता है परंतु कभी-कभी चरित्र अथवा कोई उपदेशात्मक घटना-प्रसंग भी होता है, कभी-कभी कोयडा-पहेली भी होती है अथवा अध्यात्मप्रधान बातें भी होती हैं. यदि इनमें पाँच से कम गाथाएँ हों और स्तवन, सज्झाय आदि में न जा सके तो इन्हें पद-गीत-कवित्त के रूप में ही रखें गये हैं. किसी स्थल, दृश्य, नायिका आदि का वर्णन किया गया हो ऐसे पद आदि में पाँच अथवा इससे अधिक गाथाएँ भी हो सकती हैं. इन नामों में स्तवन/सज्झाय वाला नाम नहीं बनाया गया. विशेष रूप से तो प्रत में उपलब्ध नाम की प्रतनाम अथवा पेटांकनाम में
ज्यों का त्यों लिया गया है. जिससे यह पता चलता है कि प्रत में यह कृति किस नाम से है. ५. जिनका कृति का स्पष्ट निर्धारित नाम मिलता न हो ऐसी गद्य कृतिओं हेतु हिन्दी में सुसंगत नाम दिया गया है. जैसे
अरिहंतवाणी के पैंतीसगुण (गद्य). परंतु जहाँ पर रूढ़ नाम मिलते हो वहाँ यथावत् नाम लिखा गया हैं. जैसे अढीद्वीप विचार. ६. सतियों के नाम के बाद सती शब्द अवश्य लिखा गया हैं, जैसे अंजनासती चौपाई. ७. सामान्यतः तीर्थों के नाम में स्थान नाम के बाद 'तीर्थ' शब्द लिखा गया है. जैसे- शत्रुजयतीर्थ स्तवन, हस्तिनापुरतीर्थ
कल्प, परंतु शत्रुजयमंडन आदिजिन स्तवन में तीर्थनाम प्रधान न होने से तीर्थ शब्द न लगाकर आदिजिन
स्तवन-शत्रुजयमंडन लिखा गया हैं. ८. तिथि वाचक, मास (महिना) वाचक शब्द संस्कृत में ही दिए गए हैं जैसे- एकादशीतिथि सज्झाय पूर्णिमातिथि स्तुति -
इसमें देशी भाषा की कृतियों में द्वितीया हेतु बीज को अपवाद रखा गया है. ९. तप, व्रत, तिथि विषयक नामों में उनके साथ तप इत्यादि शब्द को नाम में सम्मिलित किया गया है. जैसे
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