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हस्तप्रत प्रतिलेखन पुष्पिका एक परिचय
परिचय
हस्तप्रत के विषय में लघुतम से महत्तम सूचनाएँ प्रतिलेखन पुष्पिका से ज्ञात होती हैं. हस्तप्रत के संबंध में लेखन संवत, लेखन स्थल व अन्य आनुषंगिक माहिती लहिया / पाठक, लिखवानेवाले / उपदेशक आदि के व्यक्तित्व कृतित्व के विषय में, उनकी गुरु परम्परा व उनके द्वारा किए गए प्रतिष्ठा, अन्य ग्रंथलेखापन, ग्रंथसर्जन, आदि कार्यों के विषय में, विद्वान के गच्छ की उत्पत्ति आदि के विषय में, (स्वयं के शिष्य, गुरुभाई, अन्य कोई विशिष्ट मंत्री आदि) किसके लिए या किसकी प्रेरणा से प्रत लिखी गई है, यदि प्रेरक गृहस्थ हो तो क्वचित उसकी वंश परम्परा, प्रति को शास्त्र मर्यादा आदि की दृष्टि से उसे संशोधन करनेवाले अन्य आचार्य आदि का नाम व उनके द्वारा किए गए धर्म कार्य, लेखन में सहयोगी अपने शिष्य, गुरुभाई आदि अन्य विद्वान का नाम, वर्तमान गच्छ नायक का नाम शासक राजा, उसकी वंशावली व उसके द्वारा किए गए कार्यों का वर्णन, लेखन संवत, लेखन स्थल- शहर / गाँव / राज्य का नाम, समीपस्थ जिन प्रासाद का नाम, वसती-उपाश्रय का नाम (कई बार यह वस्ती किसी श्रावक आदि के नाम से भी जुड़ी होती है. वसती = वसही = बस्ती), तत्कालीन किसी घटना का उल्लेख जो कि धार्मिक, ऐतिहासिक दृष्टि से महत्व की हो... इत्यादि बालों में से किन्हीं भी मुद्दों का प्रतिलेखन पुष्पिका में विस्तार से या संक्षेप में समावेश हो सकता है. प्रतिलेखन पुष्पिका कई बार अत्यंत संक्षिप्त से लेकर अनेक पृष्ठों तक की विस्तृत हो सकती है, तो कई बार होती ही नहीं है.
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उपलब्धता का स्थान
प्रतिलेखन पुष्पिका ज्यादातर मात्र प्रत में कृति की समाप्ति के बाद ही होती है. परंतु कई बार हस्तप्रत में खंड-खंड में भी मिलती है. यथा- कुछ एक अंश कृति के प्रारंभ में होता है, कुछ एक अंश प्रत्येक अध्याय - पाद आदि की समाप्ति में होता है व शेष अंश अंत भाग में होता है. कई बार प्रतिलेखन पुष्पिका मात्र प्रत के आद्यभाग में ही होती है.
कई बार प्रत में मूल व टीका, टबार्थ आदि दोनों होते हैं. ऐसे में मूल व टीका आदि हेतु प्रतिलेखन पुष्पिका भिन्न भी होती है. क्योंकि लिखते समय प्रथम मूल लिखा जाता था एवं टबार्थ, टीका आदि हेतु योग्यरूप से जगह खाली छोड़ दी जाती थी. जहाँ पर बाद में अनुकूलता से उसी या अन्य व्यक्ति द्वारा लिखा जाता था. अतः दोनों प्रतिलेखन पुष्पिका भिन्न भी हो सकती है.
क्वचित पेटांकों में भी प्रतिलेखन पुष्पिका स्वतंत्र रूप से या विविध पेटांकों के समूहों के लिए मिलती हैं क्योंकि पेटा कृतियाँ कई बार बड़े व्यापक काल खंड में विभिन्न व्यक्तियों द्वारा भी लिखी जाती थी. इसी तरह प्रत्येक पेटांकगत मूल व टीका आदि की भी स्वतंत्र प्रतिलेखन पुष्पिकाएँ मिल सकती हैं.
प्रत के सर्वथा आद्य भाग में प्रतिलेखक द्वारा लिखा जाने वाले स्वयं के इष्ट देव, गुरु आदि को नमन भी प्रतिलेखक के विषय में महत्वपूर्ण सूचना उपलब्ध कराता है. यहाँ पर गुरु का नाम सामान्यतः तत्कालीन गच्छनायक का होता है या स्वयं के गुरु का होता है. जिनेश्वर का नाम समीपस्थ जिनमंदिर के मूलनायक का हो सकता है.
प्रतिलेखन पुष्पिका का स्वरूप
प्रतिलेखन पुष्पिका सामान्यतः गद्यबद्ध होती है. क्वचित सुंदर रूप से काव्यात्मक पद्यबद्ध भी मिलती है. प्रतिलेखन में पुष्पिका प्रतिलेखक का गुप्त नाम
प्रतिलेखक कई बार प्रतिलेखन पुष्पिका के श्लोकों, गाथाओं में अत्यंत चमत्कारिक काव्य रचना करते हुए गूढ रूप से या खंड-खंड - या गूढ़ सांकेतिक शब्दों में स्वयं का नाम गुंफित करता है जो एकाएक पता भी नहीं चलता.. इस सूचीपत्र में सामान्यतः प्रतिलेखन पुष्पिकागत प्रतिलेखक नाम, गुरु का नाम व गच्छ, स्थल, संवत, जैसी सीमित सूचनाएँ ही प्रविष्ट की गई है शेष सूचनाएँ यथावसर यथानुकूलता प्रविष्ट कर परिशिष्ट खंडों में प्रकाशित करने की योजना है.
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