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बांट दिया जाता है. ऐसे पत्रों वाली प्रत को गुटका कहा जाता है. ये बही की तरह ऊपर की ओर एवं सामान्य पुस्तक की तरह बगल में खुलने वाले - इस तरह दो प्रकार से बंधे मिलते हैं. मोटे गत्ते के आवरण में बंधे ये गुटके अत्यंत लघुकाय से लगाकर बृहत्काय तक होते हैं. अक्सर इन गुटकों को लपेट कर बांध देने के लिए इनके साथ दोरी भी लगी होती है. ___ चित्रपुस्तक : इस शब्द से पुस्तकों में खींचे गए चित्रों की कल्पना कोई न करे. यहाँ पर 'चित्रपुस्तक' इस नाम से लिखावट की पद्धति में से निष्पन्न चित्र यह अर्थ अभिप्रेत है. कुछ लेखक लिखाई के बीच ऐसी सावधानी के साथ जगह खाली छोड़ देते हैं, जिससे अनेक प्रकार के चौकोर, तिकोन, षट्कोण, छत्र, स्वस्तिक, अग्निशिखा, वज्र, डमरू, गोमूत्रिका आदि आकृति, चित्र तथा लेखक के विवक्षित ग्रन्थनाम, गुरुनाम अथवा चाहे जिस व्यक्ति का नाम या श्लोक-गाथा आदि देखे किंवा पढ़े जा सकते हैं. अतः इस प्रकार के पुस्तक को हमें 'रिक्तलिपिचित्रपुस्तक' इस नाम से पहचानने के लिए मुनि श्री पुण्यविजयजी ने कहा है. इसी प्रकार लेखक लिखाई के बीच में खाली जगह न छोड़कर काली स्याही से अविच्छिन्न लिखी जाती लिखावट के बीच के अमुक-अमुक अक्षर ऐसी सावधानी और खूबी से लाल स्याही से लिखते जिससे उस लिखावट में अनेक चित्राकृतियाँ, नाम अथवा श्लोक आदि देखे-पढे जा सकते हैं. ऐसी चित्रपुस्तकों को 'लिपिचित्रपुस्तक' का नाम दिया गया हैं. इसके अतिरिक्त 'अंकस्थानचित्रपुस्तक' भी चित्रपुस्तक का एक दूसरा प्रकारान्तर है. इसमें पत्रांक के स्थान में विविध प्राणी, वृक्ष, मन्दिर आदि की आकृतियाँ बनाकर उनके बीच पत्रांक लिखे जाते हैं. कुछ प्रतों में मध्य व पार्श्व-फुल्लिकाएँ बड़े ही कलात्मक ढंग से चित्रित व कई बार सोने, चांदी के वरख व अभ्रक से सुशोभित मिलती है. ऐसी प्रतें विक्रमीय १५वी से १७वी सदी की सविशेष मिलती हैं. इसी तरह प्रथम व अंतिम पत्रों पर भी बड़ी ही सुंदर रंगीन रेखाकृतियाँ चित्रित मिलती है जिन्हें चित्रपृष्ठिका के नाम से जाना जाता है. कई प्रतों की पार्श्वरेखाएँ भी बडी कलात्मक बनाई जाती थी.
चित्रित प्रतों की अपनी ही एक अलग बृहत्कथा हैं. प्रतों में एक दो से लगाकर बड़ी तादाद में सोने की स्याही व अन्य विविध रंगों से बने बड़े ही सुंदर व सुरेख चित्र मिलते है. आलेख के चारों ओर की खाली जगह में भी विविध सुंदर वेल बुट्टे एवं अन्य कलात्मक चित्र चित्रित मिलते हैं. ___ कालक्रम से लेखन शैली में परिवर्तन देखा जाता है. यथा विक्रम की १४वी-१५वी सदी में प्रत के मध्य में चौकोर फुल्लिका - रिक्त स्थान देखने में आता है जो कि ताडपत्रों में दोरी पिरोने हेतु छोड़ी जाने वाली खाली जगह की विरासत थी. बाद में यही कालक्रम से वापी का आकार धारणकर धीरे धीरे लुप्त होता पाया गया है. शैली की तरह लिपि भी परिवर्तनशील रही है. विक्रम की ११वी सदी के पूर्व और पश्चात की लिपि में काफी भेद पाया जाता है. कहते हैं कि नवांगी टीकाकार श्री अभयदेवसूरि को प्राचीन प्रतों की लिपि को पढ़ने में हुई दिक़्क़तों के कारण जैन लिपिपाटी स्थिर की गई और तब से अत्यल्प परिवर्तन के साथ प्रायः वही पाटी मुद्रणयुग पर्यंत सदियों तक स्थिर रही. मुख्य फर्क पडीमात्रा-पृष्ठमात्रा का शिरोमात्रा में परिवर्तित होने का ज्ञात होता है. योग्य अध्ययन हो तो प्रत के आकार-प्रकार, लेखन शैली एवं अक्षर परिवर्तन के आधार पर कोई भी प्रत किस सदी में लिखी गई है उसका पर्याप्त सही अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है. ___ ताड़पत्र युग और उसके बाद के प्रारंभिक कागज के युग में भी पत्रांक दो तरह से लिखे मिलते हैं. बाई ओर सामान्य तौर पर संस्कृत भाषा में क्वचित ही बननेवाले विशिष्ट अक्षर संयोगमय संकेत जो शतक, दशम व इकाई हेतु भिन्न-भिन्न होते थे और ऊपर से नीचे की ओर लिखे जाते थे. इन्हीं संकेतों का उपयोग प्रायश्चित्त ग्रंथों में ह्रस्व दीर्घ इ की मात्रा के साथ चतुर्गुरू, षड्लघु आदि को इंगित करने हेतु हुआ है. पृष्ठ के दाईं ओर सामान्य अंकों में पृष्ठांक लिखे मिलते हैं.
प्रत लिखते समय भूल न रह जाय उस हेतु भी पर्याप्त जागृति रखी जाती थी. एक बार लिखने के बाद विद्वान साधु आदि उस प्रत को पूरी तरह पढ़कर उसके गलत पाठ को हरताल, सफ़ेदा आदि से मिटा कर, छूट गए पाठ को हंसपाद आदि योग्य निशानी पूर्वक पंक्ति के बीच ही या बगल के हांसीये आदि में ओली-पंक्ति क्रमांक के साथ लिख देते थे.
इसी के साथ वाचक को सुगमता रहे इस हेतु सामासिक पदों के ऊपर छोटी-छोटी खड़ी रेखाएँ कर के पदच्छेद को दर्शाते थे. क्रियापदों के ऊपर अलग निशानियाँ करते थे एवं विशेष्य-विशेषण आदि संबंध दर्शाने के लिए भी परस्पर समान सूक्ष्म निशानियाँ करते थे. सामासिक पदों में शब्दों के ऊपर उनके वचन-विभक्ति दर्शाने हेतु ११, १२, १३, २१, २२, २३... इत्यादि अंक भी लिखते थे, तो संबोधन हेतु 'हे' लिखा मिलता है. इससे भी आगे बढ़ कर - मानो चतुर्थी हुई है तो क्यों?
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