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________________ 174 Opening ; Closing : Openings Closing: Catalogue of Sanskrit & Prakrit Manuscripts Pt V (Appendix) Colophone : Post-Colophonic; Jain Education International 1070/23478 कलाविलास श्रीगणेशाय नमः | अस्ति विशालं कमलाललित परिष्वं गमंडलायतनम् । श्रीपतिवक्षस्थलमिव रत्नोज्ज्वलमुज्ज्वलं नगरम् ॥। १ मणिभूविम्बितमुक्ताप्रलंबनिवहेन यत्र शेषाहिः । भुवनानि बिर्भात सदा वहुधात्मानं विभज्येव ॥ २ राजकुलद्वारते तस्मिन्प्राणप्रवासदत्तार्थे । सहते नरपतिकोपं त्यजति किरीटो न रूपकस्यांशम् ।। ३५ परिपीडितः स राजा विविधैरपि यातनाशतसहस्रः ॥ मम हस्ते निक्षिप्तं । 1076/23541 गीतगोविन्द श्रीगणेशाय नमः । दोहा ॥ कालिंदीजलकेलि मिलि भयो श्याम प्रतिवेष | करो कृष्ण सद्भक्त हृद- मन में प्रवेश | दोहा । गिरिजासुत सुमरन करत मंगलमुदित प्रवीन । होत कुतूहल ग्रंथकौ रसकनको जु नवीन ॥ २ श्रथ गीतगोविंदस्य बचनका लिख्यते ॥ वाञ्छित प्रन्थनिर्विघ्नसमाप्त्यर्थ श्रीकृष्णस्मरणात्मक मंगल कविजयदेव श्राचरण करें हैः ।। मेघैर्मेदुरमिति श्लोकः ।। शा लछन्द || राधाकृष्ण की यमुनातीर एकांत क्रीडासम्पूर्ण तै श्रष्टकरि कैवत है ॥ कैसे है । राधाकृष्ण यमुना तीर मार्ग मै स्थित जो कुजद्र म तिनके प्रति हर्षकेलि संयुक्तगमन करते भये तहां शंका है सो केल कोरण समय की है। तहां उतर है । अमी कुसुम-समान छवि वृंदावनरकेलि । गोपवधू उरघन कथिय प्रानंदघन रसरेलि ।। १ सुनि पन पावन पतित को गही प्रेमरसवाट । श्रधम जानि ग्रानंदघन कित भूतल - यशराट् ॥ २ शंभुत उर भक्ति प्रति देह मृत्यु निज जानि । करहु कृपा भूलतकीर्ते निज जन प्रेम विधान ॥ ३ सिभ सुध सुत सुमति अति रामवकस सुखखानि । लालदासगुर पायकै प्रेम कयौ मन मानि ॥ ४ श्रानंदघनी टीका करी लीखी जुगल सुख दैन 1 बलवंतसिंह राजत सदा विप्रदान कदैन || ५ इति श्रीगीतगोविदे आनंदघनीटीकायां धौतपीतांवरो नाम द्वादशसर्गः ।। १२ माहमासे कृष्णपक्षे तिथ ॥ ५ ॥ वार शुक्र ।। संवत् १८९९ लीषंतं ब्राह्मण जुगला । बाचनार्थ दरोगा रामबकसजी ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.018017
Book TitleCatalogue of Sanskrit and Prakrit Manuscripts Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherRajasthan Oriental Research Institute Jodhpur
Publication Year1963
Total Pages228
LanguageEnglish
ClassificationCatalogue & Catalogue
File Size9 MB
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