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________________ विशिष्ट प्रतियाँ - परिशिष्ट १२ - ५८५ और दानी था । ग्रंथ लिखने वाले लेखक (लहियों) के भी नाम मिलते है । उन लेखकों में मुनिओ. | (२) उपरोक्त महण श्रेष्ठीने वि.सं. १३०४ में लिखि मुनिसुव्रतस्वामिचरित्र की प्रति (जिता.अं.२५६) को श्रावकों और ब्राह्मणों के नाम भी शामिल है । इन गृहस्थ लेखकों ने अपने गांव के नाम इस वि.सं. १३४३ में मुल्य से खरीदकर श्री जिनचन्द्रसूरिजी को समर्पित की थी । तरह बताये है : स्तंभतीर्थ, अणहिल्लपुरपतन, मंडली-मांडल, कांसा, पलोदर, ऊमता और मुडहटा । | (३) 'आना' नामके श्रेष्ठीने वि.सं. १३७८ में श्री जिनकुशलसूरिजी के उपदेश से नैषध महाकाव्य | उन में एक लेखकने 'स्वयं भव्य अक्षर से भवभावनावृत्ति (जिता.पं.२३३) का पुस्तक लिखा' ऐसा की प्रति (जिता.ग्रं.३४१) खरीदी थी । बता के और एक लेखक ने स्वयं के लिये 'विविध लिपि का जानकार' (जिता.प्र.४०८) ऐसा पिशेषण | (४) विक्रम के १४ वे शतक में पिण्डविशुद्धिप्रकरण सटीक की प्रति को (जिता.पं.२०५) वि.सं. १३९४ देकर अपना अपना विशेष परिचय भी दीया है । में सेलु नाम के श्रेष्ठी ने खरीदकर श्री जिनपनासूरिजी को समर्पित की थी । पुरातत्त्वाचार्य मुनि श्री जिनविजयजी आदि द्वारा प्राचीन-प्राचीनतम ग्रंथोंको लिखवाने वालों की । (५) समवायांगसूत्र और समवायांगवृत्ति की प्रति (जि.ता.प्र.५) को राउला नाम के श्रेष्ठी ने वि.सं. प्रशस्ति-पुत्रिकायें अलग मुद्रित ग्रंथरुप प्रकाशित हुई है । इससे भी अनेक प्रकार से अधिक उपयुक्त १४०१ में मूल्य से खरीदकर श्री जिनचंद्रसूरिजी को समर्पित की थी । प्राचीनतम सामग्री ग्रंथकारों की प्रशस्तियों में सुरक्षित है. यदि उसका संग्रह करके एक या अधिक (६) वि.सं. १२७४ में लिखि भगवतीसूत्र की प्रति (जि.ता.अं.१५) को सुसाउ नामके श्रेष्ठी ने वि.सं. गंध रुप में प्रकाशित किया जाय तो अभ्यासी एवं जिज्ञासुओं को अनेक ऐतिहासिक और धर्मकार्यों १४०५ में श्री जिनपद्मसूरिजी के उपदेश से छुडवाई । इससे ज्ञात होता है की यह प्रति गीरो की उपयुक्त सामग्री उसमें से प्राप्त हो सके । अस्तु । रखी थी । भाग्यवान दानी श्रेष्ठीयों ने अपने अपने श्रद्धेय गुरुवयों के उपदेश से लिखवाई प्रतियों की (७) वि.सं. १२९५ में लिखि प्रवचनसारोद्धार सटीक की प्रति (जिता.पं.२०६) को खंभातनिवासी बल्लाल अव्यवस्था भी कभी कभी होती थी । जिसके कारण यह पोथीयां पैसा लेकर बेचनेवाली व्यक्तियों नाम के श्रेष्ठी ने वि.सं. १८८४ में मूल्य से खरीदी थी । के हाथ में भी जाती थी । प्रस्तुत भंडार की कितनीक प्रतियां के अन्त में मुल्य देकर लेने में (८) विक्रम के चौदहवे शतक में गोपी नाम की श्राविकाने उपदेशमालाबृहद्वृत्ति की प्रति को मूल्य आयी हुई प्रति के रुप में उल्लेख मिलते है । से खरीदकर श्री जिनेश्वरसूरिजी को समर्पित की थी । (जिता ग्रं.२३०) जैसे - (९) वि.सं. १३३९ में लिखि आदिनाथचरित्र की प्रति (जिता ग्रं.२५०) को जावड नाम के श्रेष्ठी ने (१) वि.सं. १३१९ में लिखवाई हुई त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र के प्रथम और दशम पर्व की प्रतिको खरीदकर खरतरगका को समर्पित की थी । (जिता..२३९) वि.सं. १३४३ में महण नाम के श्रेष्ठी ने (?) मूल्य से लेकर श्री जिनधन्द्रसूरिजी उपरोक्त प्रतियों की खरीदनोंद में जिससे खरीदा गया है उसका नाम बताया नहीं गया है । इससे को समर्पित की थी । खरीदनेवाला गृहस्थ एवं उसकी प्रेरणा देनेवाले धर्मगुरु की महानुभावता (गंभीरता) प्रगट होती। Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.018010
Book TitleJesalmer ke Prachin Jain Granthbhandaron ki Suchi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year2000
Total Pages665
LanguageHindi
ClassificationCatalogue & Catalogue
File Size14 MB
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