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प्रस्तावना -5 | हमने चातुर्मास के लिए प्रवेश किया ।
कारण से है की, सर्वप्रथम तो वहाँ जाना मुश्कील है, वहाँ जानेके बाद भी उन भंडारोंको प्राचीन ज्ञान-भंडारोंको व्यवस्थित और सुरक्षित कैसे किया जाय उसके लिए अनेक विचार देखनेकी सुविधा (अनुकूलता) मिलनी मुश्कील है और पूरे धैर्य के साथ संपूर्ण भंडारकी जाँच चल रहे थे । लगभग एक वर्ष से उसके लिए अलग अलग तलाशें चल रही थी । जैसलमेर करने का काम तो बहुत ही कठिन है । इस परिस्थितिमें उन ग्रंथभंडारोंका निरीक्षण बहुत पहुंचे तब तक अमदावाद तथा मुंबई आदिमें फोटो एवं कम्प्युटर तकनीकी के विशेषज्ञोंसे संपर्क कम होने से उसके साहित्यका अनुमान और उपयोग बहुत कम लोग कर सके हैं । इसलिए व परामर्श चल रहा था । अंतमें तुरंत शक्य और सरल उपाय स्केनींग करनेका लगा । जैसलमेर विद्वानोंमें उसका आकर्षण आज भी रहा है । जो जो विद्वान वहाँ गये उन्होंने अपने लिए ही जैन ट्रस्ट की ओरसे स्केनींगकामके लिए सन् १९९८ के जुलाई के अंतिम सप्ताह में हमे को कुछ काम करनेसे उसका व्यापक परिचय सभीको नहीं मिल सका, इस कारण भी इन भंडारोंकी अनुमति मिली । उसके बाद ही स्केनर के लिए तलाश की गई और यथा शीघ्र दो स्कैनर जिज्ञासा विद्वद्वर्गमें हमेशा बनी रही है | इस भंडारकी महत्ताका अलग उपलक्षण यही है । आ गयें । आने के बाद दि. ३-८-९८ से काम का प्रारंभ किया गया । जैसे जैसे जरुरत वैसे तो भारतमें स्थान-स्थानमें जो ताडपत्र या कागज पर लिखे हुए ग्रंथोंके संग्रह है वे सब महसूस हुई वैसे वैसे अधिक स्केनर, कम्प्युटर आदि खरीदते गये । उसके बाद भी अनेकानेक अनेकानेक दृष्टिसे महत्त्वपूर्ण हैं । संक्षेपमें ऐसा भी कह सकते हैं की, गुजरात आदि के भंडार व्यवधानोंसे गुजरते हुए जिन जिन ग्रंथोंकी स्केनींग करके सी.डी. बनायी गई और जिन जिन
कई बार अपने देखनेमें आने से उनके प्रति मानसिक खिंचाव (लगाव) उतना नहीं रहता जितना ग्रंथोंकी फोटोस्टेट करनेमें आयी और जिन ग्रंथों पर कुछ भी कार्य नहीं किया जा सका उन की नवीनताकी तरफ रहता है । यह स्वाभाविक है । सभी ग्रंथो का सूचिपत्र यहाँ दीया गया है।
जैसलमेरमें कुल मिलाकर निम्नोक्त दस झान भंडार विद्यमान है । पूज्य आगमप्रभाकर मुनिप्रवरश्री पुण्यविजयजी महाराज जैसलमेर ग्रंथभंडारोंको व्यवस्थित करने १) किलेमें श्री संभवनाथजी के मंदिरमें भूमिगृह में आया हुआ श्री जिनभद्रसूरिग्रंथभंडार । के लिए विक्रमसंवत् २००६ में जैसलमेर पधारे थे । वहाँ १६ महिने रहकर उन्होंने अथक परिश्रम २) वेगडगच्छीय ग्रंथभंडार । करके ग्रंथ भंडारोंको व्यवस्थित किया था । उसके बाद श्री जिनभद्रसूरि प्रथभंडारकी ताडपत्रीय ३) खरतरगच्छीय बडे उपाश्रयका या पंचका ग्रंथभंडार । तथा कागज पर लिखित प्रतियोंका सूषिपत्र इसवी सन् १९७२ में लालभाई दलपतभाई भारतीय ४-५) खरतरगच्छीय बडे उपाश्रयमें आचार्य श्री वृद्धिचंद्रजी यतिश्रीका ग्रंथभंडार और यतिश्री संस्कृति विद्यामंदिर- अमदावाद-९ से प्रकाशित हुआ था । उसका नाम 'CATALOGUE OF लक्ष्मीचंद्रजी महाराज का ग्रंथभंडार । SANSKRIT A PRAKRIT MANUSCRIPTS OF JESALMER COLLECTION" है । उसकी ६) आचार्यगच्छ के उपाश्रयका ग्रंथभंडार । प्रस्तावनामें उसके सहायक संदापक पंडित श्री अमृतभाई मोहनलाल भोजकने ग्रंथ-भंडारोंका गुजराती ७) खरतरगच्छीय श्री थाहरूशाहजीका ग्रंथभंडार | माषामें जो वर्णन किया है उसका कुछ अंश हिंदीमें अनुवादित करके अक्षरशा यहाँ दीया जाता ८) यति श्री डूंगरजीका ग्रंथभंडार ।। है । विस्तृत और अधिक जानकारी जिज्ञासुदर्ग उस सूचिपत्र से प्राप्त करे ।
९) लोंकागच्छका ग्रंथभंडार । अमृतलाल भोजक लिखित प्रस्तावना का कुछ अंश ।
१०) तपागच्छका ग्रंथभंडार | "जैसलमेरके ग्रंथमंडारोंकी विशेष महत्ता उसमें रही हुई प्राचीन-प्राचीनतम प्रतियाँ और कई
इन भंडारोंमें से लौकागच्छीय और तपागच्छीय ग्रंथभंडारके सिवा अन्य आठों भंडार खरतरगच्छीय अन्यत्र अप्राप्य ग्रंथोंके कारण से है । इसका मतलब यह नहीं कि गुजरात आदि प्रदेशोंके ग्रंथमंडारोंका महत्त्व उससे कम है । पाटण, खंभात, अमदाबाद, सूरत और अन्यत्र रहे हुए
प्रथम दो नंबरोंके ग्रंथभंडार तो किलेमें साथ ही है, जब की तीसरे क्रमांकका बडा उपाश्रयका ग्रंथमंडारोंमें ऐसे अनेक ग्रंथ हैं जिनका मूल्यांकन हम जैसलमेर के ग्रंथोंसे. जरा भी कम नहीं
ग्रंथभंडार पूज्यपाद आगमप्रभाकरश्रीजीने जैसलमेरके श्री संघको समझाकर किले में रखवाया है। कर सकते । अर्थात् पाटण-खंभातादि के ताडपत्रीय ग्रंथभंडारोंके समान ही जैसलमेरके प्रथभंडार ।
पाँचवे क्रमांकका यतिश्री लक्ष्मीचंद्रजी महाराजका भंडार उन्होंने स्वयंने विक्रमसंवत् २००७ में श्री का महत्त्व है । जैसे जैसलमेर के भंडारमें अन्यत्र अप्राप्य और प्राचीनतम विशिष्ट ग्रंथ है वैसे
हेमचंद्राचार्य जैन ज्ञानमंदिर (पाटण-गुजरात) को समर्पित कर देने से फिलहाल यह मंडार पाटणमें पाटण-खंभातादि के भंडारोंके संबंध में भी है। जैसलमेर के ग्रंथभंडारका सविशेष महत्व उस | ह ।
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