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कृति उपरथी प्रत माहिती कुल झे.पृष्ठ-१२४, डीवीडी-७/१७ धर्माचार्यबहुमानप्रकरण
आचार्य-रत्नसिंहसूरि, प्रा., पद्य, गा.३४, आदि वाक्यः नमिऊं गुरुपयपउमं धम्मायरियस्स निययसीसेहिं... पाकाहेम १११५३- पे.क्र. ३२, पृ. ४१-४२, मुनिचन्द्रसूरि-चक्रेश्वरसूरि-रत्नसिंहसूरिकृत प्रकरणसङ्ग्रह, वि-१९७९,
संपूर्ण
कुल झे.पृष्ठ-३५ धर्माधर्मविचारकुलक
आचार्य-जिनप्रभसूरि, अप., पद्य, गा.१९, आदि वाक्यः (१) अह जण निसुणिज्जउ कन्नि धरिज्जउ धम्माधम्मविचार
फुडु...(२) इय जणु निसुणिज्जउ... पाताखेत ६- पे.क्र. ६, पृ. ९४-९६, उपदेशमालादि ५४ ग्रन्थो, संपूर्ण
प्रत विशेष- शुद्ध प्रति.
___ कुल झे.पृष्ठ-११०, डीवीडी-६१/६३ पाताहेसं १६१- पे.क्र. ३६, पृ. २५१-२५२, दशवैकालिकसूत्र आदि प्रकरण सङ्ग्रह, वि-१३८९, संपूर्ण
पे. विशेष- गाथा-१९. प्रत विशेष- प्रान्ते कृतिओनी अनुक्रमणिका आपेली छे.
कुल झे.पृष्ठ-१७०, डीवीडी-८/१८ पाताहेसं १६८- पे.क्र. २९, पृ. ५६अ-५८अ, दशवैकालिकसूत्र, पाक्षिक सूत्रस्तोत्रवृत्ति, स्तुति स्तवनादि, संपूर्ण
पे. विशेष- संपूर्ण. गाथा-१८. झेरोक्ष पत्र-३९-४०. प्रत विशेष- प्रारंभिक कुछेक पत्र उभय पार्श्व खंडित होने से पाठ भी खंडित है.
__ कुल झे.पृष्ठ-७२, डीवीडी-९/१८ पाताहेसं १८९- पे.क्र. ३३, पृ. १३३A-१३४A, दशवैकालिकसूत्रादि प्रकरणसङ्ग्रह, संपूर्ण
पे. नाम- धर्माधर्मप्रकरण, पे. विशेष- गाथा-१८. प्रत विशेष- त्रुटक. कुल पत्र-४५+१५९=२०४. इसमें दूसरे क्रम के पत्रांक १८-४६ नहीं है. कुछेक पत्रों पर
बीजक दिया हुआ है. कुछ पत्रों के आधे भाग खंडित हैं.
कुल झे.पृष्ठ-८४, डीवीडी-१०/१९ धर्माधर्मविचारकुलक
मारुगूर्जर, पद्य, गा.१७, आदि वाक्यः चउदहपूरवमांहि जु सारु... पाकाहेम ९०२- पे.क्र. ५९, पृ. २४०-२४१, ओघनियुक्ति आदि अनेक प्रकीर्णक-प्रकरण-कुलक-स्तोत्रसङ्ग्रह,
संपूर्ण
कुल झे.पृष्ठ-३१ धर्माभ्युदय (सङ्घपति) चरित्र (सङ्घपतिवस्तुपालचरित्र), (वस्तुपालचरित्र)
आचार्य-उदयप्रभसूरि, गुरु-आचार्य-माणिक्यप्रभसूरि, सं., ग्रं.५२००, आदि वाक्यः अहँल्लक्ष्मी स्तुमः
श्रेष्ठपरमेष्ठिपदप्रदाम्...
कृ.विः छाया नाटक. पातासंघवी ९४, पृ. ४१६, धर्माभ्युदय (सङ्घपति) चरित्र, अपूर्ण प्रत विशेष- पत्र १-३-२०६ना टुकडा छे. १२५-१२७ घसाई गया छे. १९५, २२४, २२८, २४४ थी २५४, २५९,
३०१ थी ३०६, ३०९, ३१२ थी ३२१, ३२३, ३२४, ३२६, ३२७, ३३०, ३५३ थी ३५५, ३६२, ३६३, ३६७ थी ४११, ४१४ नथी.
डीवीडी-३२/५१ धर्माभ्युदय छायानाट्यप्रबन्ध
आचार्य-मेघप्रभाचार्य, सं., पद्य, आदि वाक्यः यः शक्रेण मुदाभिवन्दितपदद्वन्द्वः क्ष्माभृद्वरः... पाताहेसं १४७- पे.क्र.२, पृ. ४७-६७, लिङ्गानुशासन वृत्तिसहित आदि, वि-१२७३, संपूर्ण प्रत विशेष- गायकवाड केटलॉगमां पत्र ८५ आप्या छे.
डीवीडी-८/१७
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