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{95) इति विविधभङ्गगहने सुदुस्तरे मार्गमूढदृष्टीनाम्। गुरवो भवन्ति शरणं प्रबुद्धनयचक्रसञ्चाराः॥
(पुरु. 4/22/58) इस प्रकार, अत्यन्त कठिनाई से पार हो सकने वाले अनेक भंगरूपी घने वन में मार्ग भूले 卐 हुए पुरुष को (जिस प्रकार कोई पथ-प्रदर्शक ही शरण होता है, उसी तरह हिंसा-अहिंसा के के 卐 सूक्ष्म रहस्य को न समझ पाने के कारण मूढ़-दृष्टि लोगों को) अनेक प्रकार के नयसमूह के ज्ञाता ॥
श्री गुरु ही शरण होते हैं (अर्थात् उसे हिंसा-अहिंसा के रहस्य को समझाते हैं)।
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जत्थेव चरइ बालो परिहारण्हू वि चरइ तत्थेव। बज्झदि पुण सो बालो परिहारण्हू वि मुच्चइ सो॥
__ (भग. आ. 1197) जीवों की हिंसा से बचने के उपायों को न जानने वाला जिस क्षेत्र में विचरण करता 卐 है, जीवों की हिंसा से बचने के उपायों को जानने वाला भी उसी क्षेत्र में विचरण करता है।
तथापि वह ज्ञान और चारित्र में बालक के समान अज्ञ तो पाप से बद्ध होता है, किन्तु उपायों को जानने वाला पाप से लिप्त नहीं होता, बल्कि उससे मुक्त होता है।
O अहिंसा अणुव्रत का उपदेश गहाव्रती द्वारा
[शास्त्रीय आलोक में शंका-रामाधान]
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थूलगपाणाइवायं पच्चक्खंतस्स कह न इयरंमि। होइणुमइ जइस्स वि तिविहेण तिदंडविरयस्स ॥
(श्रा.प्र. 114) (यहां कोई शंका करता है-)
जो यति तीन प्रकार के त्रिदंड से विरत है- अर्थात् मन, वचन, काय और कृत, ॐ कारित, अनुमोदन से पाप का परित्याग कर चुका है- वह जब किसी श्रावक को स्थूल卐 ॐ प्राणियों के प्राण-विघात का प्रत्याख्यान कराता है, तब उसकी अनुमति इतर में-स्थूल
प्राणियों से भिन्न सूक्ष्म प्राणियों के विघात में-कैसे अनुमति न होगी? (और अनुमति होने पर यति का महाव्रत भंग हो जाता है।)
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[जैन संस्कृति खण्ड/40