SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 524
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 听听听听听听听听听听 विचिन्त्येति यतीन् भक्त्या तत्स्थ एवाभिवन्ध तान्। वैमनस्येन तैश्छात्रैर्नगरं प्राविशत् समम्॥ (274) शास्त्रबालत्वयोरेकवत्सरे परिपूरणे। वसोः पिता स्वयं पट्टे बध्वा प्रायात्तपोवनम॥ (275) वसुः निष्कण्टकं पृथ्वीं पालयन् हेलयाऽन्यदा। वनं विहर्तुमभ्येत्य पयोधरपथाद् द्विजान् ॥ (276) प्रस्खल्य पतितान् वीक्ष्य विस्मयादिति खाद् द्रुतम्। पतता हेतुनाऽवश्यं भवितव्यमिति स्फुटम् ॥ (277) ऐसा विचार कर उसने उन मुनियों को वहीं वृक्ष के नीचे बैठे-बैठे भक्तिपूर्वक नमस्कार किया और फिर बड़ी उदासीनता से उन तीनों छात्रों के साथ वह अपने नगर में आ गया। एक वर्ष के बाद शास्त्राध्ययन तथा : बाल्यावस्था पूर्ण होने पर वसु के पिता विश्वावसु, वसु को राज्यपट्ट बांध कर स्वयं तपोवन के लिए चले गए। इधर वसु ज पृथिवी का अनायास ही निष्कण्टन पालन करने लगा। किसी एक दिन वह विहार करने के लिए वन में गया था। वहीं क्या देखता है कि बहुत-से पक्षी आकाश में जाते-जाते टकरा कर नीचे गिर रहे हैं। वह सोचने लगा कि इसमें कुछ कारण अवश्य होना चाहिए। मत्वाऽऽकृष्य धनुर्बाणममुश्चत्तत्प्रदेशवित्। स्खलित्वा पतितं तस्मात्तं समीक्ष्य महीपतिः ।। (278) तत्प्रदेशं स्वयं गत्वा रथिके न सहास्पृशत्। आकाशस्फटिकस्तम्भं विज्ञायाविदितं परैः॥ (279) 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 为明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明 यह विचार, उसने उस स्थान का ज्ञान प्राप्त करने के लिए धनुष खींच कर एक बाण छोड़ा। वह बाण भी वहां टकरा कर नीचे गिर पड़ा। यह देख, राजा वसु वहां स्वयं गया और सारथि के साथ उसने उस स्थान का स्पर्श किया। स्पर्श करते ही उसे मालूम हुआ कि यह आकाशस्फटिक स्तम्भ है, वह स्तम्भ आकाश के रंग से इतना मिलताजुलता था कि किसी दूसरे को आज तक उसका बोध नहीं हुआ था। आनाय्य तेन निर्माप्य । पृथुपादचतुष्टयम्। तत्सिंहासनमारुह्य सेव्यमानो नपादिभिः॥ (280) वसुः सत्यस्य माहात्म्यात्स्थितः खे सिंहविष्टरे। इति विस्मयमानेन जनेनाघोषितोन्नतिः॥ (281) राजा वसु ने उस स्तम्भ को घर ला कर उसके चार बड़े-बड़े पाये बनवाये और उनका सिंहासन बनवा * कर वह उस पर आरूढ़ हुआ। उस समय अनेक राजा आदि उसकी सेवा करते थे। लोग बड़े आश्चर्य से उसकी ॐ उन्नति की घोषणा करते हुए कहते थे कि देखो, राजा वसु सत्य के माहात्म्य से सिंहासन पर अधर आकाश में ॐ बैठता है। 明明明哥 जैन संस्कृति खण्ड/494
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy