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________________ EFFEREFREEEEEEEEEEEEEEE स्वपक्षमित्युपन्यस्य विरराम स पर्वतः। नारदस्तमपाकर्तुमित्युवाच विचक्षणः॥ शृण्वन्तु मद्वचः सन्तः सावधानधियोऽधना। पर्वतस्य वचः सर्व शतखण्डं करोम्यहम् ॥ अजैरित्यादिके वाक्ये यन्मृषा पर्वतोऽब्रवीत्। अजाः पशव इत्येवमस्यैषा स्वमनीषिका ॥ स्वाभिप्रायवशाद् वेदे न शब्दार्थगतिर्यतः। वेदाध्ययनवत्साप्तादुपदेशमुपेक्षते ॥ गुरुपूर्वक्रमादर्थात् दृश्यः शब्दार्थनिश्चितिः। सान्यथा यदि जायेत जायेताध्ययनं तथा॥ (ह. पु. 17/113-117) इस प्रकार वह पर्वत अपना पूर्व पक्ष स्थापित कर चुप हो गया, तब बुद्धिमान् नारद ने उसका निराकरण 卐 卐 करने के लिए इस तरह बोलना शुरू किया। उसने कहा कि हे सजनों! सावधान होकर मेरे वचन सुनिए। मैं अब ॥ ॐ पर्वत के सब वचनों के सौ टुकड़े करता हूं। 'अजैर्यष्टव्यम्' इत्यादि का अर्थ पर्वत ने जो कहा है, वह झूठ है। क्योंकि अज का अर्थ पशु है, वह इसकी स्वयं की कल्पना है । वेद में शब्दार्थ की व्यवस्था अपने अभिप्राय से नहीं * होती, किन्तु वह वेदाध्ययन के समान आप्त से उपदेश की अपेक्षा रखती है। कहने का तात्पर्य यह है कि गुरुओं की पूर्व- परम्परा से शब्दों के अर्थ का निश्चय करना चाहिए। यदि शब्दार्थ का निश्चय अन्यथा होता है, तो अध्ययन मैं भी अन्यथा हो जाएगा। $$$$$明明明明明明明明明明 听听听听听听听听听听听听听听听听听听 明明明明明明明明明明明明 明明明明 तेन पूर्वोक्तदोषोऽपि नैवास्माकं प्रसज्यते। व्यवहारोपयोगित्वाद् वाचां स्वोचितगोचरे ॥ सत्यां क्षित्यादिसामग्र्यामप्रसेहादिपर्ययाः। व्रीहयोऽजाः पदार्थोऽयं वाक्यार्थो यजनं तु तैः॥ देवपूजा यजेरर्थस्तैरजैर्यजनं द्विजैः। नैवेद्यादिविधानेन यागः स्वर्गफलप्रदः।। (ह. पु. 17/127-129) पर्वत ने जो पहले यह दोष दिया था कि यदि शब्दों का स्वभाव- सिद्ध अर्थ न किया जायेगा तो卐 卐 व्यवहार का ही लोप हो जायेगा- उसका हमारे ऊपर प्रसंग ही नहीं आता, क्योंकि शब्दों का अपने-अपने योग्य 卐 स्थलों पर व्यवहार की सिद्धि के लिए ही उपयोग किया जाता है। इसलिए पृथ्वी आदि सामग्री के रहते हुए भी ॐ जिसमें अंकुरादि रूप पर्याय प्रकट न हो सके- ऐसा तीन वर्ष का पुराना धान 'अज' कहलाता है । यह तो अज शब्द ॐ का अर्थ है, और ऐसे धान्य से यज्ञ करना चाहिए- यह 'अजैर्यष्टव्यम्' इस वाक्य का अर्थ है। यज धातु का अर्थ * देव-पूजा है, इसलिए द्विजों को पूर्वोक्त धान से ही पूजा करनी चाहिए- क्योंकि नैवेद्य आदि से की हुई पूजा ही ॐ स्वर्ग रूप फल को देने वाली होती है। E F [जैन संस्कृति खण्ड/476 FEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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