SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 502
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱明%$$$$$$$$$$$$$$$$$$羽羽羽 S EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEng इत्युक्तोऽपि स दुर्मोचग्राहग्रहगृहीतधीः। सोऽनादृत्य वचस्तस्य प्रतिज्ञामकरोत्पुनः॥ किमत्र बहुनोक्तेन शृणु नारद! वस्तुनि। पराजितोऽस्मि यद्यत्र जिह्वाच्छेदं करोम्यहम्॥ नारदेन ततोऽवाचि किं दुःखाग्निशिखाततौ। पतङ्ग इव दु:पक्षः पर्वत! पतसि स्वयम् ॥ पर्वतोऽपि ततोऽवोचद् यात किं बहुजल्पितैः। श्वोऽस्तु नौ वसुराजस्य सभायां जल्पविस्तरः॥ नष्टस्त्वं दृष्ट इत्युक्त्वा स्वावासं नारदोऽगमत् । पर्वतोऽपि च तां वाता मातुरातमतिर्जगो॥ सा निशम्य हतास्मीति वदन्ती तान्तमानसा। निनिन्द नन्दनं मिथ्या त्वदुक्तमिति वादिनी॥ ___ (ह. पु. 17/70-75) दुःख से छूटने योग्य हठरूपी पिशाच से जिसकी बुद्धि ग्रस्त थी, ऐसे पर्वत ने नारद के इस प्रकार कहने पर भी अपना झूठ नहीं छोड़ा, प्रत्युत नारद के वचनों का तिरस्कार कर उसने यह प्रतिज्ञा कर ली कि हे नारद! अधिक कहने से क्या? यदि इस विषय में पराजित हो जाऊं तो अपनी जीभ कटा लूं। पश्चात् नारद ने कहा कि हे पर्वत! खोटा ज पक्ष लेकर, खोटे पंखों से युक्त पक्षी के समान दुःख रूपी अग्नि की ज्वालाओं में स्वयं क्यों पड़ रहे हो? इसके उत्तर में पर्वत ने भी कहा कि जाओ, बहुत कहने से क्या? कल हम दोनों का राजा वसु की सभा में शास्त्रार्थ हो जावे। वितण्डावाद बढ़ते देख, नारद यह कह कर अपने घर चला गया कि पर्वत ! मैं तुम्हें देखने आया था सो देख लिया, तुम भ्रष्ट हो गये। नारद को चले जाने पर पर्वत ने भी दुःखी होकर यह वृत्तान्त अपनी माता से कहा। पर्वत की बात सुनकर उसकी माता का हृदय बहुत दुःखी हुआ। हाय मैं मरी' यह कहती हुई उसने पर्वत की निन्दा की, उसके मुख से बारबार यही निकल रहा था कि तेरा कहना झूठ है। नारदस्य वचः सत्यं परमार्थनिवेदनात् । वचस्तवान्यथा पुत्र! विपरीतपरिग्रहात् ॥ समस्तशास्त्रसंदर्भगर्भनिर्भेदशद्धधीः । पिता ते पुत्र! यत्प्राह तदेवाख्याति नारदः॥ एवमुक्त्वा निशान्ते सा निशान्तमगमद्वसोः । आदरेणेक्षिता तेन पृष्टा चागमकारणम्॥ निगद्य वसवे सर्व ययाचे गुरुदक्षिणाम्। हस्तन्यासकृतां पूर्व स्मरयित्वा गुरोगुहे ॥ जानताऽपि त्वया पुत्र! तत्त्वातत्त्वमशेषतः। पर्वतस्य वचः स्थाप्यं दुष्यं नारदभाषितम् ॥ सत्येन श्रावितेनास्या वचनं वसुना ततः। प्रतिपत्रमतः सापि कृतार्थेव ययौ गृहम्॥ (ह. पु. 17/16-81) हे पुत्र! परमार्थ का प्ररूपक होने से नारद का कहना सत्य है और विपरीत अर्थ का आश्रय लेने से तेरा F F FFFFFFFEE [जैन संस्कृति खण्ड/472
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy