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________________ (10571 जगनिस्सिएहिं भूएहिं तसनामेहिं थावरेहिं च। नो तेसिमारभे दंडं मणसा वयसा कायसा चेव ॥ (उत्त. 8/10) जगत् के आश्रित-अर्थात् संसार में जो भी त्रस और स्थावर नाम के प्राणी हैं, उनके प्रति मन, वचन, काय- रूप किसी भी प्रकार के दण्ड (घातक उपकरण) का प्रयोग न करे। 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {1058} अनिलस्स समारंभं बुद्धा मन्नंति तारिसं। सावजबहुलं चेव, नेयं ताईहिं सेवियं ॥ (36) तालियंटेण पत्तेण साहाविहुयणेण वा। न ते वीइउमिच्छंति, वीयावेऊण वा परं ॥ (37) जं पि वत्थं वा पायं वा कंबलं पायपुंछणं। न ते वायमुईरंति जयं परिहरंति य॥ (38). तम्हा एयं वियाणित्ता दोसं दोग्गइवड्ढणं। वाउकाय-समारंभं जावजीवाए वज्जए॥ (39) (दशवै. 6/299-302) बुद्ध (तीर्थंकरदेव) वायु (अनिल) के समारम्भ को अग्निसमारम्भ के सदृश ही मानते हैं। यह सावद्य-बहुल (प्रचुर पापयुक्त) है। अतः यह षट्काय के त्राता साधुओं के द्वारा आसेवित नहीं है। 36) ____ (इसलिए) वे (साधु-साध्वी) ताड़ के पंखे से, पत्र (पत्ते) से, वृक्ष की शाखा से, की अथवा पंखे से (स्वयं) हवा करना तथा दूसरों से हवा करवाना नहीं चाहते (और उपलक्षण से अनुमोदन भी नहीं करते हैं।) । (37) जो भी वस्त्र, पात्र, कम्बल या रजोहरण हैं, उनके द्वारा (भी) वे वायु की उदीरणाम नहीं करते, किन्तु यतनापूर्वक वस्त्र पात्रादि उपकरण को धारण कर । हैं। (38) (आयुका । सा गद्य बहुल है) इसलिए इर: दुर्गतिवर्द्धक दाष का जान कर (साधुवर्ग) जीवनपर्यन्त वायुकाय-समारम्भ का त्याग करे। 39) * FRELESELFYFREHEYEHEYEHEYEHEYELEHEHEYEHEYEHEYEENERYESENFEREYE [जैन संस्कृति खण्ड/430
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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