SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 420
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ YERSEEEEEEEEEEEEEEEE O हिंसा-दोषगुक्त आहार का ग्रहण (एषणा समिति) {975) द्विचत्वारिंशद्-भिक्षादोषैर्नित्यमदूषितम्। मुनिर्यदन्नमादत्ते, सैषणा-समितिर्मता॥ (है. योग. 1/38) मुनि हमेशा भिक्षा के 42 दोषों से रहित जो आहार-पानी ग्रहण करता है, उसे 'एषणा-समिति' कहते हैं। {976) से भिक्खू वा जाव समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा असणं वा ॐ पुढविक्कायपतिट्ठितं । तहप्पगारं असणं वा अफासुयं जाव णो पडिगाहेज्जा। से भिक्खू वा से ज्जं पुण जाणेज्जा असणं वा आउकायपतिट्ठितं तह चेव। एवं अगणकायपतिट्ठितं लाभे संते णो पडिगाहेज्जा। केवली बूया-आयाणमेयं । अस्संजए भिक्खुपडियाए अगणिं उस्सिक्किय णिस्सिक्किय ओहरिय आहट्ट दलएज्जा। अह भिक्खूणं पुव्वोवदिट्ठा। जाव णो पडिगाहेज्जा। (आचा. 2/1/7/सू. 368) गृहस्थ के घर में आहार के लिए प्रविष्ट भिक्षु या भिक्षुणी यदि यह जाने कि यह अशनादि चतुर्विध आहार-पृथ्वीकाय (सचित्त मिट्टी आदि) पर रखा हुआ है; तो इस प्रकार के आहार को 卐 अप्रासुक और अनेषणीय समझ कर साधु-साध्वी ग्रहण न करे।वह भिक्षु या भिक्षुणी आदि..... यह 卐 जाने कि अशनादि आहार अप्काय (सचित्त जल आदि) पर रखा हुआ है, तो इस प्रकार के आहार को अप्रासुक व अनेषणीय जान कर ग्रहण न करे वह भिक्षु या भिक्षुणी.... यह जाने कि अशनादि आहार अग्निकाय (आग या आंच) पर रखा हुआ है, तो आहार को अप्रासुक तथा अनेषणीय जान 卐 कर ग्रहण न करे। 卐 केवली भगवान् कहते हैं- यह कर्मों के उपादान का कारण है; क्योंकि असंयत गृहस्थ है साधु के उद्देश्य से- अग्नि जला कर, हवा देकर, विशेष प्रज्वलित करके या प्रज्वलित आग में इंधन निकाल कर, आग पर रखे हुए बर्तन को उतार कर, आहार लाकर दे देगा, इसीलिए 卐 तीर्थंकर भगवान् ने साधु-साध्वी के लिए पहले से बताया है, यही उनकी प्रतिज्ञा है, यही हेतु है, ॐ यही कारण है और यही उपदेश है कि वे सचित्त-पृथ्वी, जल, अग्नि आदि पर प्रतिष्ठित आहार में को अप्रासुक और अनेषणीय मान कर प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करें। WERESENTERTREENERFREEEEEEEEEEEE [जैन संस्कृति खण्ड/B92
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy