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________________ (818) R EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE हंतूण य बहुपाणं अप्पाणं जो करेदि सप्पाणं । अप्पासुअसुहकंखी मोक्खंकंखी ण सो समणो॥ (मूला. 10/921) जो बहुत से प्राणियों का घात करते हुए अपने प्राणों की रक्षा करता है, अप्रासुक (भोजन आदि के सेवन) में सुख का इच्छुक वह श्रमण मोक्ष-सुख का इच्छुक नहीं है (क्योंकि वह स्पष्टतः मोक्ष-विरोधी कार्य में संलग्न है)। {819) न हु पाणवहं अणुजाणे मुच्चेज कयाइ सव्वदुक्खाणं। एवारिएहिं अक्खायं जेहिं इमो साहुधम्मो पन्नत्तो॥ (उत्त. 8/8) जिन्होंने साधु कर्म की प्ररूपणा की है, उन आर्य पुरुषों ने कहा है-"जो प्राणवध का 卐 अनुमोदन करता है, वह कभी भी सब दुःखों से मुक्त नहीं हो सकता।" $听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听! (820) 如明明听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 परपीडेह सूक्ष्माऽपि वर्जनीया प्रयत्नतः। तद्वत्तदुपकारेऽपि यतितव्यं सदैव हि ॥ (यो.दृ.स. 150) (योग-) साधक का यह प्रयास रहे कि उसकी ओर से किसी को जरा भी पीड़ा न ' की पहुंचे। उसी प्रकार, उसे सदा दूसरों का उपकार करने का भी प्रयत्न करते रहना चाहिए। {821) से ण छणे, न छणावए, छणंतं णाणुजाणति। ___ (आचा. 1/3/2 सू. 119) वह (अनन्यसेवी मुनि) प्राणियों की हिंसा स्वयं न करे; न दूसरों से हिंसा कराए और न हिंसा करने वाले का अनुमोदन करे। * FREERSEAFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFE [जैन संस्कृति खण्ड/334
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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