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{809) सम्यक्कायकषायाणां बहिरन्तर्हि लेखना। सल्लेखनापि कर्तव्या कारणे मारणान्तिकी। रागादीनामनुत्पत्तावागमोदितवर्त्मना । अशक्यपरिहारे हि सान्ते सल्लेखना मता ॥
(ह. पु. 58/160-161) ___ मृत्यु के कारण उपस्थित होने पर बहिरंग में शरीर और अन्तरंग में कषायों का अच्छी है तरह कृश करना 'सल्लेखना' कहलाती है। व्रती मनुष्य को मरणान्तकाल में यह सल्लेखना 卐 अवश्य ही करनी चाहिए। जब अन्त अर्थात् मरण का किसी तरह परिहार न किया सके, तब
रागादिक की अनुत्पत्ति के लिए आगमोक्त मार्ग से सल्लेखना करना उचित माना गया है।
(राल्लेखनाधारी: वैर आदि कलुषित भावों का त्यागी एवं क्षगाभाव का धारक)
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शोकं भयमवसाद, क्लेदं कालुष्यमरतिमपि हित्वा । सत्त्वोत्साहमुदीर्य च, मनः प्रसाद्य श्रुतैरमृतैः॥
(रत्नक. श्रा. 126) सल्लेखनाधारी व्यक्ति शोक, भय, विषाद, राग, द्वेष और अप्रेम को छोड़कर अपने बल और उत्साह को बढ़ा कर अमृत के समान सुखकारक, तथा संसार के दुःख और सन्ताप के नाशक शास्त्रों को स्वयं सुन कर तथा दूसरों को सुना कर अपने मन को प्रसन्न करे।
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स्नेहं वैरं सङ्गं, परिग्रहं चापहाय शुद्धमनाः। स्वजनं परिजनमपि च, क्षान्त्वा क्षमयेत्प्रियैर्वचनैः॥
(रत्नक. श्रा. 124) समाधिकरण करने वाला व्यक्ति उपकारक (इष्ट) वस्तु से राग, अनुपकारक (अनिष्ट) 5 वस्तु से द्वेष, स्त्रीपुत्रादि से समता का सम्बन्ध (रिश्ते) और बाह्य व आभ्यन्तर परिग्रह को ' ॐ छोड़ कर शुद्ध मन होकर प्रिय वचनों से अपने कुटुम्बियों व नौकरों आदि से अपने दोषों की
क्षमा मांगे तथा आप भी उनके अपराधों को क्षमा करे।
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अहिंसा-विश्वकोश।33]]