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(775) इति यः षोडशयामान् गमयति परिमुक्तसकलसावद्यः। तस्य तदानीं नियतं पूर्णमहिंसाव्रतं भवति॥
__(पुरु. 4/121/157) जो जीव इस प्रकार समस्त पाप-क्रियाओं से मुक्त होकर सोलह पहर बिताता है, 卐 उसके उस समय नियम से सम्पूर्ण अहिंसा-व्रत होता है।
Oहिंसात्गक लोग-त्यागः अतिथिसंविभाग व्रत/वैयावृत्य
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{776) हिंसायाः पर्यायो लोभोऽत्र निरस्यते यतो दाने । तस्मादतिथिवितरणं हिंसाव्युपरमणमेवेष्टम् ॥
____ (पुरु. 4/136/172) लोभ हिंसा का पर्याय ही है। चूंकि यहां दान में लोभ कषाय (रूप हिंसा) का त्याग किया जाता है, इसलिये अतिथि-दान में हिंसा का त्याग ही स्वतः समर्थित हो जाता है।
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{777} एवं व्रतस्थितो भक्त्या सप्तक्षेत्र्यां धनं वपन्। दयया चातिदीनेषु महाश्रावक उच्यते ॥
(है. योग. 3/119) शास्त्रोक्त रीति से बारह व्रतों में स्थिर हो कर सात क्षेत्रों में भक्तिपूर्वक तथा अतिदीनजनों में दयापूर्वक अपने धनरूपी बीज बोने वाला महाश्रावक कहलाता है।
{778) गृहमागताय गुणिने मधुकरवृत्त्या परानपीडयते । वितरति यो नातिथये स कथं न हि लोभवान् भवति ॥
(पुरु. 4/137/173) जो गृहस्थ घर पर आये हुए रत्नत्रय आदि से युक्त, भ्रमर समान वृत्ति से दूसरों की पीड़ा न देने वाले अतिथि-साधु को भोजनादि दान नहीं देता, वह लोभकषाय युक्त कैसे नहीं है? अर्थात् अवश्य लोभकषाय से युक्त है (और हिंसा-दोष से दूषित भी है)।
E EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEN [जैन संस्कृति खण्ड/322