SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 264
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 馬 馬 卐 馬 卐 $$$$$$$$$$$! 翁 卐 卐 卐 缟 卐 卐 $$$$$$$$$$骹 卐 卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐驗 (हिंसक मनोभाव और उनके निवारक अहिंसात्मक भाव ) हिंसा के प्रेरक : अप्रशस्त कषाय भाव दुःखवहाः । इन्द्रियकषायवशगो जीवान् हिनस्ति । दुःखकरणेन वाऽस्रवत्यसद्वेद्यम् इति । यत एव दुःखावहा अतएव भीमाः । (526) कषायास्तु क्रोधादयः कषायन्ति हृदयम् । अथवा दुःखकारणासद्वेद्यार्जननिमित्तत्वात् ( भग. आ. विजयो. 1310 ) क्रोधादि कषाय हृदय को संताप पहुंचाती हैं। जो इन्द्रिय और कषाय के वश में होता है, वह जीवों का घात करता है । जीवों को दुःख देने से उसके असातावेदनीय कर्म का आस्रव होता है, और चूंकि ये इन्द्रिय तथा कषाय दुःखदायी हैं, अतएव ये भयंकर हैं । (527) कषायोन्मत्तो यथा पापं करोति, (पित्तोन्मत्तः ) तथाभूतं न करोति । एकैकोऽपि क्रोधादिः हिंसादिषु प्रवर्तयति । कर्मणां स्थितिबन्धं दीर्घीकरोति । विवेकज्ञानमेव तिरस्करोति पित्तोन्मादः । ततोऽनयोर्महदन्तरम् इति भावः । 编 (528) सव्वे वि कोहदोसा माणकसायस्स होदि णादव्वा । माणेण चेव मेधुणहिंसालियचोज्जमाचरदि ॥ (भग. आ. 1372) क्रोध के दोष कहे गये हैं, वे सब दोष मान कषाय के भी जानना । मान के कारण मनुष्य हिंसा, असत्य बोलना, चोरी और मैथुन में प्रवृत्ति करता है । $$$$$$$$$$$$$$$$ (भग. आ. विजयो. 1325) 翁 कषाय के कारण उन्मत्त पुरुष जैसा पाप करता है, पित्त से उन्मत्त वैसा पाप नहीं करता। एक-एक भी क्रोधादि कषाय हिंसा आदि में प्रवृत्त करता है। कर्मों के स्थितिबन्ध को बढ़ाता है। किन्तु पित्त से हुआ उन्माद केवल विवेकमूल के ज्ञान का ही तिरस्कार करता है। इसलिए इन दोनों में बहुत अन्तर है । [ जैन संस्कृति खण्ड /236 卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐 卐 卐 卐 馬 卐 馬 高
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy