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________________ EFFFFFFFEEEEEEEEEEEEEEEEMA #बेचारे अपने कृत कर्मों की बेड़ियों से जकड़े हुए हैं। जिनके परिणाम-अन्त:करण की वृत्तियां अकुशल-अशुभ हैं, जो मन्दबुद्धि हैं, वे इन प्राणियों को नहीं जानते। वे अज्ञानी जन न पृथ्वीकाय को जानते हैं, न पृथ्वीकाय के आश्रित रहे अन्य स्थावरों एवं त्रस जीवों को 卐 जानते हैं। उन्हें जलकायिक तथा जल में रहने वाले अन्य त्रस-स्थावर जीवों का ज्ञान नहीं है 卐 है। उन्हें अग्निकाय, वायुकाय, तृण तथा (अन्य) वनस्पतिकाय के एवं इनके आधार पर रहे है हुए अन्य जीवों का परिज्ञान नहीं है। ये प्राणी उन्हीं (पृथ्वीकाय आदि) के स्वरूप वाले, उन्हीं के आधार से जीवित रहने वाले अथवा उन्हीं का आहार करने वाले होते हैं। उन जीवों 卐 का वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और शरीर अपने आश्रयभूत पृथ्वी, जल आदि के सदृश होता है। जी उनमें से कई जीव नेत्रों से दिखाई नहीं देते हैं और कोई-कोई दिखाई देते भी हैं। ऐसे असंख्य त्रसकायिक जीवों की तथा अनन्त सूक्ष्म, बादर, प्रत्येकशरीर और साधारणशरीर वाले स्थावरकाय के जीवों की जान-बूझ कर या अनजाने कारणों से हिंसा करते हैं। {512) से बेमि अप्पेगे अच्चाए वधंति, अप्पेगे अजिणाए वति, अप्पेगे मंसाए वधेति; अप्पेगे म सोणिताए वधेति, अप्पेगे हिययाए वधेति, एवं पित्ताए वसाए पिच्छाए बालाए सिंगाए विसाणाए दंताए, दाढाए नहाए ण्हारुणीए अट्ठिए अट्ठिमिंजाए अट्ठाए अणट्ठाए। # अप्पेगे हिंसिंसु मे त्ति वा, अप्पेगे हिंसंति वा, अप्पेगे हिंसिस्संति वा णे 卐वधेति। ___ (आचा. 1/1/6/सू. 52) मैं कहता हूं- कुछ मनुष्य अर्चा (देवता की बलि या शरीर के श्रृंगार) के लिए 卐जीव हिंसा करते हैं। कुछ मनुष्य चर्म के लिए, मांस, रक्त, हृदय (कलेजा), पित्त, चर्बी, पंख, पूंछ, केश, सींग, विषाण (सुअर का दांत,)दांत,दाढ़, नख, स्नायु, अस्थि (हड्डी) और अस्थिमज्जा के लिए प्राणियों की हिंसा करते हैं। कुछ किसी प्रयोजन-वश, कुछ निष्प्रयोजन/ व्यर्थ ही जीवों का वध करते हैं। कुछ व्यक्ति (इन्होंने मेरे स्वजनादि की) 卐 हिंसा की, इस कारण (प्रतिशोध की भावना से) हिंसा करते हैं। कुछ व्यक्ति (यह मेरे 卐 स्वजन आदि की) हिंसा करता है, इस कारण (प्रतीकार की भावना से) हिंसा करते हैं। EE कुछ व्यक्ति (यह मेरे स्वजनादि की हिंसा करेगा) इस कारण (भावी आतंक/भय की संभावना से) हिंसा करते हैं। $$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$听听听听听听听听听听听听听听那 OFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFF अहिंसा-विश्वकोश/223)
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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