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________________ 卐 , {463} अवितीर्णस्य ग्रहणं परिग्रहस्य प्रमत्तयोगाद्यत् । तत्प्रत्येयं स्तेयं सैव च हिंसा वधस्य हेतुत्वात् ॥ (पुरु. 4/66/102) जो प्रमाद (कषाय) के कारण विना दिये किसी के परिग्रह का- स्वर्ण-वस्त्रादि का जो ग्रहण करना है, वह 'चोरी' ही है, और वह 'हिंसा' रूपं भी है क्योंकि वह (किसी न किसी दृष्टि से) सम्बद्ध व्यक्ति की 'हिंसा' में कारण होता है। (464) अर्था नाम य एते प्राणा एते बहिश्चराः पुंसाम्। हरति स तस्य प्राणान् यो यस्य जनो हरत्यर्थान्॥ (पुरु. 4/67/103) ___ जो मनुष्य जिस जीव के पदार्थों अथवा धन को हर लेता है, वह मनुष्य (एक प्रकार 卐 से) उस जीव के प्राणों को हर लेता है, क्योंकि जगत् में जो ये धनादि पदार्थ प्रसिद्ध हैं, वे ॐ सभी मनुष्य के बाह्य प्राण (जैसे)हैं। $$$$$$$$$$$$$$弱弱弱弱弱弱弱弱頭弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱 如听听听听听听听听听听听听听听听听明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明那 {465) हिंसायाः स्तेयस्य च नाव्याप्तिः सुघटमेव सा यस्मात्। ग्रहणे प्रमत्तयोगो द्रव्यस्य स्वीकृतस्यान्यैः॥ (पुरु. 4/68/104) हिंसा में और चोरी में अव्याप्ति (साहचर्य का अभाव) नहीं है। (अपितु दोनों का परस्पर साहचर्य ही देखा जाता है।) चोरी में हिंसा घटित होती ही है, क्योंकि दूसरों के द्वारा ॐ स्वीकार (हस्तगत) किए गए द्रव्यों में कहीं न कहीं प्रमाद/कषाय का योगदान रहता ही है। {466) ___ अदत्तादाने कृते तत्स्वामिनः प्राणापहार एव कृतो भवति । बहिश्चराः प्राणा ॥ म धनानि। (भग. आ. विजयो. 611) विना दी हुई वस्तु का ग्रहण अर्थात् चोरी करने पर, उसके स्वामी का प्राण ही हर * लिया जाता है क्योंकि धन मनुष्यों का बाहरी प्राण होता है। FEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEN अहिंसा-विश्वकोश/2011
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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