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________________ (4571 संसारमूलमारम्भास्तेषां हेतुः परिग्रहः। तस्मादुपासकः कुर्यादल्पमल्पं परिग्रहम् ॥ __(है. योग. 2/110) प्राणियों के उपमर्दन (पीड़ा या वध) रूप आरम्भ होते हैं, वे ही संसार के मूल हैं। उन आरम्भों' का मूल कारण 'परिग्रह' है। इसलिए श्रमणोपासक या श्रावक को चाहिए कि वह धन-धान्यादि का परिग्रह अल्प से अल्प करे। यानी परिग्रह का परिमाण निश्चित करके म उससे अधिक न रखे। Oअहिंसक भावना अपेक्षितः राजकीय कोष-संग्रह में {458) समञ्जसत्वमस्येष्टं प्रजास्वविषमेक्षिता। आनृशंस्यमवाग्दण्डपारुष्यादिविशेषितम् ॥ (आ. पु. 38/279) समस्त प्रजा को समान रूप से देखना अर्थात् किसी के साथ पक्षपात नहीं करना ही 卐 राजा का 'समंजसत्व' गुण (सबको साथ लेकर एवं समन्वय के साथ चलने का गुण) : कहलाता है। उस समंजसत्व गुण में क्रूरता या घातकपना नहीं होना चाहिए और न कठोर वचन तथा दण्ड की कठिनता ही होनी चाहिए। {459) पयस्विन्या यथा क्षीरमद्रोहेणोपजीव्यते। प्रजाऽप्येवं धनं दोह्या नातिपीडाकरैः करैः॥ __ (आ. पु. 16/254) जिस प्रकार दूध देने वाली गाय से उसे बिना किसी प्रकार की पीड़ा पहुंचाये दूध 卐 दुहा जाता है और ऐसा करने से वह गाय भी सुखी रहती है तथा दूध दुहने वाले की 卐 आजीविका भी चलती रहती है, उसी प्रकार राजा को भी प्रजा से धन वसूल करना । चाहिए। वह धन अधिक पीड़ा न देनेवाले करों (टैक्सों) से वसूल किया जा सकता है। म ऐसा करने से प्रजा भी दु:खी नहीं होती और राज्यव्यवस्था के लिए योग्य धन भी सरलता 卐 से मिल जाता है। REFERESTFEEFFFFFFFFFFFEN अहिंसा-विश्वकोश।1991
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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