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名事。
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(237)
कहं णं भंते! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवागसंजुत्ता कज्जंति ?
कालोदाई ! से जहानामए केइ पुरिसे मणुण्णं थालीपागसुद्धं अट्ठारसवंजणाकुलं
परिणममाणे परिणममाणे दुरूवत्ताए दुग्गंधत्ताए जहा महस्सवए (स. 6 उ. 3 सु. 2
[1]) जाव भुज्जो भुज्जो परिणमति, एवामेव कालोदाई ! जीवाणं पाणातिवाए जा मिच्छादंसणसल्ले, तस्स णं आवाते भद्दए भवइ, ततो पच्छा परिणममाणे परिणममाणे दुरूवत्ताए जाव भुज्जो भुज्जो परिणमति, एवं खलु कालोदाई ! जीवाणं पावा कम्मा क पावफलविवाग. जाव कज्जंति ।
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विससंमिस्सं भोयणं भुंजेज्जा, तस्स णं भोयणस्स आवाते भद्दए भवति, ततो पच्छा
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[प्र.] भगवन्! जीवों को पापफलविपाकसंयुक्त पापकर्म कैसे लगते हैं?
[उ.] कालोदायिन् ! जैसे कोई पुरुष सुन्दर स्थाली (हांडी, तपेली, या देगची)
में कहे अनुसार यावत् ) बार-बार अशुभ परिणाम प्राप्त करता है । हे कालोदायिन् ! इसी
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में पकाने से शुद्ध पका हुआ, अठारह प्रकार के दाल, शाक आदि व्यंजनों से युक्त
विषमिश्रित भोजन का सेवन करता है । यह भोजन उसे आपात ( ऊपर-ऊपर से या प्रारम्भ) में अच्छा लगता है, किन्तु उसके पश्चात् वह भोजन परिणमन होता-होता खराब
रूप में, दुर्गन्धरूप में ( यावत् छठे शतक के महास्रव नामक तृतीय उद्देशक (सू. 2-1)
का बांधे हुए पापकर्म उदय में आते हैं, तब वे अशुभरूप में परिणत होते-होते, दुरूपपने में, दुर्गन्धरूप में यावत् बार-बार अशुभ रूप में परिणत होते हैं। हे कालोदायिन् ! इसी प्रकार से जीवों के पापकर्म अशुभफलविपाक से युक्त होते हैं ।
का सेवन ऊपर-ऊपर से प्रारम्भ में तो अच्छा लगता है, किन्तु बाद में जब उनके द्वारा
(व्या. प्र. 7/10/16 ) 馬
[निष्कर्ष - जिस प्रकार सर्वथा सुसंस्कृत एवं शुद्ध रीति से पकाया हुआ विषमिश्रित भोजन खाते समय
बड़ा रुचिकर लगता है, किन्तु जब उसका परिणमन होता है, तब वह अत्यन्त अप्रीति-कर, दुःखद और प्राणविनाशक
होता है। इसी प्रकार प्राणातिपात आदि पापकर्म करते समय तो जीव को अच्छे लगते हैं, किन्तु उनका फल भोग समय वे बड़े दुःखदायी होते हैं ।]
[ जैन संस्कृति खण्ड /106
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בכרם
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प्रकार जीवों को प्राणातिपात से लेकर यावत् मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह पापस्थानों 卐
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