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6 बाह्य तप
3. तपधर्म 4.भावधर्म
6अभ्यंतर तप
अनशन शक्ति अनुसार उपवास आदि तप करना । चार प्रकार के अशन-पान-खादिमस्वादिम चीजों का त्याग।
प्रायश्चित जीव के द्वारा हुये पापों को योग्य, गीतार्थ गुरू भगवंत के पास जाकर प्रगट करना और उसका प्रायश्चित लेना।
उणोदरी अपने भोजन के प्रमाण से कुछ न्यून वापरना। अर्थात 4 रोटी की बजाय 3 वापरनी।
विनय गुणादिसे उच्च कक्षा में रहे हुए देव गुरू आदि का विनय करना।
वृत्तिसंक्षेप खाने के द्रव्यों में संक्षेप करना । अर्थात् 20 या 25 इत्यादि द्रव्यों से ज्यादा नहीं वापरना।
वैयावच्च गुणवंतों की, तपस्वीयों की सेवा करना।
भाव धर्म
रस त्याग दुध-दही-घी-तेल-गुड़पकवान रूप विगईयों में किसी भी विगई का त्याग करना या संपूर्ण त्याग करना।
स्वाध्याय जीव-अजीव आदि नवतत्वों की बातें जिसमें आती हो ऐसी पुस्तकों का स्वाध्याय चिंतन
मनन करना।
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काय क्लेश शरीर को पैदल तीर्थयात्रा केश ढुंचन इत्यादि धर्मक्रिया द्वारा क्लेश होता है वह काय क्लेश रूप तप है ... कर्मों की निर्जरा होती है।
चार प्रकार के धर्म में चौथा
भाव धर्म सर्वोत्कृष्ट बताया है। दान-शील
तथा तप, बिना भाव के
किये हुए वास्तविक फल
देने में असमर्थ है अत: जिन प्रणित सारे अनुष्ठान भाव पूर्वक करना चाहिए। जैसे पेथड़शा प्रभु पूजा में मस्त बन गये।
ध्यान परभ उपास्य देव
आदि तत्व का
आलंबन लेकर ध्यान करना, जाप
करना।
संलीनता बिना कारण के अंग - उपांगों को हिलाना नहीं । एक जगह संलीनता पूर्वक नियम अनुसार टिककर के बैठना।
कायोत्सर्ग मन-वचन-काया से स्थिर होना । प्रवृत्ति
का त्याग करके कायोत्सर्ग में हिलना
- चलना नहीं।
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