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८६. अमरूशतक बालावबोध, रामविजयोपाध्याय / दयासिंह उ०, काव्य, राजस्थानी, सोजत, 'अन्त - सतरे से इक्कनुबै अमरु शतक उदार...', अ., ह. बालचन्द संग्रह रा.प्रा.वि.प्र., चित्तौड़, खरतरगच्छ ज्ञान भं., जयपुर
८७. अमृतधर्मगणि अष्टक, क्षमाकल्याणोपाध्याय / अमृतधर्म उ०, स्तोत्र, संस्कृत, १९वीं, 'आदि-श्री वाचनाचार्यपदप्रतिष्ठा... गा. ८', मु., ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, पृ. ३०७ ८८. अम्बड़ चरित्र चौपई, विनयसमुद्रगणि / जिनमाणिक्यसूरि ?, रास चौपई, राजस्थानी, १७वीं, 'आदि- पहिलउ पणमउ आदि वलि...,, अन्त - कही मन भाव. कैलाशसागरसूरि ज्ञान मन्दिर, कोबा १६४९
अ., ह.
८९. अम्बड़ चरित्र भाषा, क्षमाकल्याणोपाध्याय / अमृतधर्म उ०, चरित्र, राजस्थानी, १८५४ पालीताणा, ‘अन्त-वाचक अमृतधर्मवर...', अ., ह. खरतरगच्छ ज्ञान भं., जयपुर ९०. अयवंती सुकुमाल चौढालिया, कीर्त्तिसुन्दर (कान्हजी ) / धर्मवर्द्धन उ०, रास चौपई, राजस्थानी, १७५७ मेड़ता, 'आदि- वंदु श्री महावीरना..., अन्त-संवत सतरे वरस सतावने...', अ., उ. जैन गुर्जर कविओ भाग-३, पृ. १४०४
९१. अयवंती सुकुमाल रास, जिनहर्षगणि / शान्तिहर्षगणि, रास चौपई, राजस्थानी, १७४१ राजनगर, 'आदि-पास जिणेसर सेविइ..., अन्त - पास जिणेसर प्रतिमा थापी...', अ., ह. अभय ग्र., बीकानेर, क्षमाकल्याण संग्रह, बीकानेर, बालचन्द्र संग्रह, रा.प्रा.वि.प्र., चित्तौड़
९२. अयवंती सुकुमाल रास, धर्मसमुद्रगणि / विवेकसिंहगणि आद्यपक्षीय, रास चौपई, राजस्थानी, १५८४, 'आदि-जिणवर धुरि त्रेविसमोरे..., अन्त - एक चलइ सोम न पगे लागी...', अ., उ. जैन गुर्जर कविओ भाग - १, पृ. ११८
९३. अरजिन स्तोत्र - सहस्त्रदलकमलमय- स्वोपज्ञ टीकासह, श्रीवल्लभोपाध्याय / ज्ञानविमल उ०, स्तोत्र, संस्कृत, १७वीं, 'मूलादि - असुरनिर्जरबन्धुरशेखर ..., अन्त-इत्थं देवेन्द्रसङ्घ...', 'आदि टीका स्वकीयविद्यागुरुसत्प्रसादात्..., अन्त - खरतर गणजलधिसमुल्लासन...', मु., सुमतिसदन, कोटा, सम्पादक - म. विनयसागर
९४, अरजिन स्तोत्र सावचूरि, साधुसुन्दरोपाध्याय / साधुकीर्त्ति उ०, स्तोत्र, संस्कृत, १७वीं, अ., ह. महिमाभक्ति - बड़ा ज्ञान भं., बीकानेर
९५. अरनाथ स्तोत्र, जिनप्रभसूरि / जिनसिंहसूरि, स्तोत्र, संस्कृत, १४वीं, 'आदि- जय शरदसकलदशहयवदन... गा. १४', अ., ह. विनय प्रतिलिपि, प्रकरण रत्नाकर भाग-४, पृ. २७२ ९६. अरणिकमुनि चौपई, राजहर्षगणि / ललितकीर्त्ति उ०, रास चौपई, राजस्थानी, १७३२, ‘आदि-श्रीफलवधि प्रणमुं... अन्त- सदा सुख संपजइए...', अ., ह. कैलाशसागरसूरि ज्ञान मन्दिर, कोबा ६५१५
९७. अरहन्त्रक चौपाई, राजहर्षगणि / ललितकीर्त्ति उ०, रास चौपई, राजस्थानी, १७३२ दंतवासपुर, ‘आदि-श्री फलवधि प्रणमुं सदा ..., अन्त - अरहन्ना रिषि वंदीये...', अ., ह. क्षमाकल्याण संग्रह, बीकानेर
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खरतरगच्छ साहित्य कोश
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