________________
निरुक्त कोश
१०८. अभयंकर (अभयङ्कर) अभयं करोतीति अभयङ्करः।
(सूचू १ पृ १४६) जो अभय करता है, वह अभयंकर है । १०६. अभयद (अभयद) अभयं ददतीत्यभयदाः।
(जीटी १ २५५) जो अभय देते हैं, वे अभयदाता हैं। ११०. अभिग्गह (अभिग्रह) अभिगृह्यन्ते इति अभिग्रहाः।
(आवहाटी २ पृ २१०) जिनको संकल्परूप में ग्रहण किया जाता है, वे अभिग्रह/ प्रतिज्ञाएं हैं। १११. अभिजोग (अभियोग) अभियुज्यत इत्यभियोगः।
(सूचू २ पृ ४५२) जो आरोपित किया जाता है, वह अभियोग है। ११२. अभिज्झा (अभिध्या) अभि-व्याप्त्या विषयाणां ध्यानं तदेकाग्रत्वमभिध्या ।
(भटी पृ १०५२) इन्द्रिय-विषयों में विशेष रूप से एकाग्र होना अभिध्या/लोभ है। ११३. अभिणिबोह (अभिनिबोध)
अत्थाभिमुहो नियतो बोधो अभिनिबोधः। (नंचू पृ १३)
जो अर्थाभिमुख ज्ञान होता है, वह अभिनिबोध/मतिज्ञान है । ११४. अभिणिसेज्जा (अभिनिषद्या)
अभि रात्रिमभिव्याप्य स्वाध्यायनिमित्तमागता निषीदन्त्यस्यामित्यभिनिषद्या।
(व्यभा ३ टी प ५२) जहां रात्रि के समय मुनि स्वाध्याय के लिए बैठते हैं, वह अभिनिषद्या स्वाध्याय भूमि है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org