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८२. अण्णायएसि ( अज्ञातैषिन् )
अज्ञातमज्ञातेन एषते - भिक्षते असौ अज्ञातैषी ।
जो अज्ञात रहकर अज्ञात कुलों में एषणा अज्ञातैषी है ।
८३. अंतर (अंतर)
न तरितुं शक्यत इति अतरः ।
जिसे तरना संभव नहीं, वह अतर / समुद्र है ।
८४. अतिगमण ( अतिगमन )
अतिक्रम्य गमनं - प्रवेशमतिगमनम् ।
८५. अतिमाण ( अतिमान)
अतिक्राम्यते येन चारित्रं सोऽतिमाणं ।
अतिक्रमण कर गमन / प्रवेश करना अतिगमन है ।
जिसके द्वारा चारित्र का अतिक्रमण अतिमान है ।
८६. अतिवात ( अतिपात )
अतिवादिज्जति जेण सो अतिवादो ।
है ।
८७. अतिवातसोय ( अतिपात स्रोतस् )
अतिपतति संसारातो अतिपातसोयं ।
क्रिया) है |
८८. अत्त (आप्त )
निरुक्त कोश
(
उचू पृ २३५ ) करता है, वह
( व्यभा ४ / १ टीप २३)
( आचू पृ ३०७ )
जिसके द्वारा अतिपतन / विनाश होता है, वह अतिपात / हिंसा
( बृटी पृ ६१० )
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(सूचू १ पृ २०३) किया जाता है, वह
( आचू पृ ३०७ ) जो संसार से निकालता है, वह अतिपातस्रोत ( ईर्यापथिक
जो ज्ञान आदि से व्याप्त है, वह आप्त है ।
ज्ञानदर्शनचारित्राणि येनाप्तानि स भवत्याप्तः ।
जिसने ज्ञान, दर्शन और चारित्र को प्राप्त कर लिया है, वह आ है।
ज्ञानादिभिराप्यते स्म आप्तः ।
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( व्यभा १० टीप ३५)
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