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निरुक्त कोश
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शोभनो विधिरस्येति सुविधिः । (आवहाटी २ पृ ६)
जो सब विधियों/नीतियों में कुशल है, वह सुविधि है। १०. सोयल (शीतल) पिउणो दाहोवसमो गब्भगए सीयलो तेणं। (आवनि १०८४)
(दसवें तीर्थंकर के) पिता दृढ़रथ की पित्तदाहजन्य पीड़ा औषधि से शांत नहीं हुई, पर गर्भवती माता नन्दा के स्पर्शमात्र से पित्तदाह का शमन हो गया, अत: शिशु का नाम शीतल रखा गया। सकलसत्त्वसन्तापकरणविरहादालादजनकत्वाच्च शीतल इति, तत्थ सम्वेऽवि अरिस्स मित्तस्स वा उरि सीयलघरसमाणा।
(आवहाटी २ पृ.) जो सब प्राणियों का संताप दूर कर आह्लाद उत्पन्न करता है, सबके लिए शीतगृह की भांति सुखकर है, वह शीतल है। ११. सेज्जंस (श्रेयांस) महरिहसिज्जारुहणंमि डोहलो तेण सिज्जंसो। (आवनि १०८५)
माता विष्णुदेवी को देवतापरिगृहीत शय्या पर बैठने का दोहद उत्पन्न हुआ। वह उस शय्या पर बैठी पर गर्भ के प्रभाव से देवता उसका कुछ भी अश्रेय/अहित नहीं कर सके, इसलिए उनका श्रेयांस अभिधान हुआ । श्रेयात्-समस्तभुवनस्यैव हितकरः .... श्रेयांसः।
(आवहाटी २ पृ ६) जो तीनों लोकों का श्रेय कल्याण करता है, वह श्रेयांस है। १२. वसुपुज्ज (वासुपूज्य)
पूएइ वासवो जं अभिक्खणं तेण वसुपुज्जो। (आवनि १०८५)
बारहवें तीर्थंकर जब माता जया की कुक्षि में अवतरित हुए, तब वासव/इन्द्र ने पुनः पुनः जननी की पूजा की, इसलिए उनका नामकरण 'वासुपूज्य' हुआ। वसूणि-रयणाणि, वासवो-वेसमणो सो वा अभिगच्छति ।
(आवचू २ पृ १०)
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