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निरुक्त कोश १६४८. सिद्धत (सिद्धान्त)
जेण उ सिद्धं अत्थं, अंतं णयतीति तेण सिद्धंतो।' (बृभा १७६)
जो सिद्ध/यथार्थ अर्थ को अंत/पार तक ले जाता है, वह
सिद्धांत है। १६४६. सिद्धि (सिद्धि)
सिध्यन्ति-कृतार्था भवन्ति यस्यां सा सिद्धिः। (स्थाटी प २२)
जिसमें प्राणी सिद्ध कृतार्थ हो जाता है, वह सिद्धि है। १६५०. सिर (शिरस्) शीर्यते' इति शिरः।
(उचू पृ ५६) __ जो शीर्ण होता है, वह शिर/मस्तक है। शृता तस्मिन् प्राणा इति शिरः।
(दश्रुचू प ७४) जिसमें प्राण अवस्थित--संगृहीत रहते हैं, वह शिर है। १६५१. सिरज (शिरज) सिरे जायंति शिरजा।
(दश्रुचू प ४१) जो सिर में पैदा होते हैं, वे शिरज केश हैं । १६५२. सिलेस (श्लेष) श्लेषयति श्लेषः ।
(आटी प ५७) जो श्लिष्ट करता है, वह श्लेष/गोंद है । १६५३. सिसिर (शिशिर) सिणातीति' सिसिरं ।
(आचू पृ ३१०) ___ जो प्रकम्पित करता है, वह शिशिर (ऋतु) है। १. सिद्धं-प्रमाणप्रतिष्ठितमर्थमन्तं-संवेदननिष्ठारूपं नयतीति
सिद्धांतः। (अनुद्वामटी प ३४) २. शृणाति वियुक्तमिति शिरः। (अचि पृ १२८) ___ जो धड़ से वियुक्त होने पर शीर्ण हो जाता है, वह शिर है । ३. सिण्ता (स्नुह) हिमम् । (कालू स्मृति ग्रंथ पृ १०४) ४. 'शिशिर' के अन्य निरुक्त
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