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________________ ३०६ १६२१. सागरंगमा ( सागरङ्गमा ) सागरं - समुद्रं गच्छतीति सागरङ्गमा । १६२२. सागार (सागार) ( उशाटी प ३५२ ) जो सागर की ओर जाती है, वह सागरङ्गमा / नदी है । सहागारेण - गृहेण वर्तते इति सागारः । १६२३. सामण ( सामान्य ) जो अगार / गृह में रहता है, वह सागार / गृहस्थ है । १६२४. सामाइय (सामाजिक) उपसर्जनीकृतातुल्यरूपाः प्रधानीकृततुल्यरूपाः समतया प्रज्ञायमानाः सामान्यमिति व्यपदिश्यन्ते । ( स्थाटी प १२ ) जिसमें असमानता गौण रूप से और समानता प्रधान रूप से जानी जाती है, वह सामान्य है । १६२५. सामुच्छेइय ( सामुच्छेदिक ) निरुक्त कोश समाज:- -समूहस्तं समवयन्ति सामाजिका: । ( उशाटी प ३५१ ) जो समूह में चलते हैं, वे सामाजिक हैं । ( पंटी प १५३ ) प्रतिक्षणं समुच्छेदं --- क्षयं वदन्तीति सामुच्छेविका: । १६२६. सायणी (शायिनी ) जो प्रतिक्षण समुच्छेद / विनाश का प्रतिपादन करते हैं, वे सामुच्छेदिक / अश्वमित्र ( निह्नव) मतानुयायी हैं । Jain Education International ( औटी पृ २०२ ) शाययति -- स्वापयति निद्रावन्तं करोति या शेते वा यस्यां सा शायिनी शयनी वा ।' ( स्थाटी प ४६७) जो व्यक्ति को सुलाती है, वह शायिनी / मनुष्य की दसमी दशा है । For Private & Personal Use Only १. ही भिन्न सरो दोणो, विवरीओ विश्चित्तओ । डुब्बलो दुखिओ सुवई, संपत्तो इसम दसं । ( स्थाटी प ४६७) www.jainelibrary.org
SR No.016101
Book TitleNirukta Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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