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निरुक्त कोश
१५३२. संवाह ( सम्वाह)
यत्र पर्वत नितम्बादिदुर्गे परचक्रभयेन रक्षार्थं धान्यादीनि संवहन्ति स संवाहः । ( स्थाटी प २८४ )
जहां धान्य आदि का संवहन / रक्षण किया जाता है, वह संवाह / दुर्गविशेष है ।
१५३३. संवुडचारि (संवृतचारिन् )
संवृतः संयमोपक्रमः तच्चरणशीलः संवृतचारी । ( सूचू १ पृ ३८ ) जो संयममय आचरण करते हैं, वे संवृतचारी हैं ।
१५३४. संवेयणी ( संवेदनी )
संवेगयति संवेगं करोतीति संवेद्यते वा संबोध्यते संवेज्यते वासंवेगं ग्राह्यते श्रोतानयेति संवेदनी संवेजनी वेति ।
( स्थाटी प २०४ ) जो संवेग / भवविराग पैदा करती है, संबुद्ध करती है, वह संवेदी ( कथा ) है |
१५३५. संसत्त (संसक्त)
२८६.
गुणैर्दोषैश्च संसज्यते - मिश्रीभवतीति संसवतः । ( प्रसाटी प २७ ) जो गुणों / व्रतों का पालन करता है, साथ-साथ दोषों का सेवन भी करता है, वह संसक्त / शिथिलाचारी मुनि है ।
१५३६. संसप्प ( संसर्पक)
संसप्पंतीति संसप्पगा ।
१५३७. संसय ( संशय )
जो गति करते हैं, वे संसर्पक / चींटी आदि प्राणी हैं ।
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( आचू पृ २६० )
संसेतीति संसयो ।
संशेऽस्मिन् मन इति संशयः ।
जिससे मन संदेहशील होता है, वह संशय है । संशय्यते च अर्थद्वयमाश्रित्य बुद्धिरिति संशयः । ( उचू पृ १८३ ) जहां (दो अर्थों को लेकर ) बुद्धि सन्दिग्ध बनती है, वह संशय है ।
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( आचू पृ १५६ )
( उशाटी प ५२४ )
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