________________
निरक्त कोश
गन्ध्यते आघ्रायते इति गन्धः । . (प्राकटी १ पृ ४८)
__ जिसे सूंघा जाता है, वह गंध है। ४८४. गगण (गगन)
अतिशयगमनविषयत्वाद् गगनम् ।' (भटी पृ १४३१) - जहां सब पदार्थ गमन करते हैं, वह गगन है । ४८५. गणटकर (गणार्थकर) गणस्य साधुसमुदायस्यार्थान्—प्रयोजनानि करोतीति गणार्थकरः ।
(स्थाटी प २३३) जो गण के अर्थ प्रयोजनों को पूर्ण करता है, वह गणार्थंकर
है।
४८६. गणसोभि (गणशोभिन्) गणं वादप्रदानतः शोभयतीत्येवंशीलो गणशोभी।
(व्यभा १० टी प ६७) जो गण को वादनिपुणता से सुशोभित करता है, वह गणशोभी है। ४८७. गणसोहिकर (गणशोधिकर)
गणस्य यथायोगं प्रायश्चित्तदानादिना शोधि-शुद्धि करोतीति गणशोधिकरः।
(स्थाटी प २३३) जो गण की शुद्धि करता है, वह गणशोधिकर है। ४८८. गणहर (गणधर) तित्थगरेहि सयमणुन्नातं गणं धारेंतिति गणहरा।
(आवचू १ पृ८६) जो तीर्थंकरों द्वारा अनुज्ञात गण को धारण करते हैं, वे गणधर हैं। १. 'गगन' का अन्य निरुक्तगच्छन्त्यनेन देवा गगनम । (अचि पृ ३७)
जिसके द्वारा देवता गमन करते हैं, वह गगन/आकाश है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org