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निरुक्त कोश
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( ब्राह्मण) जिसका अनुष्ठान करते हैं, वह ऋतु/यज्ञ हैं ।" ( स्वर्गकामी) जिसका अनुष्ठान करते हैं, वह ऋतु / यज्ञ है । " ३७५. कच्छु (कच्छ)
कंडू इतस्स अंते डज्जति विसप्पतीति वा कच्छू । जो खुजलाने के बाद जलन पैदा करती है वह कच्छू / खुजली है |
३७६. कट्ठ (काष्ठ)
कश्यतीति काष्ठम् ।
कत्थतीति काष्ठम् ।
जो जलने पर प्रकाश देता है, वह काष्ठ है । जो चीरा जाता है, वह काष्ठ है ।
३७७. कणंगर (कनङ्गर)
३७८. कण्णसर (कर्ण शर)
जो जलते समय शब्द करता है, वह काष्ठ है ।
काय - पानीयाय नङ्गराः - बोधिस्थ ( वोहित्थ ) -- निश्चलीकरण - पाषाणास्ते कनङ्गराः । ( विपाटी प ७१ ) जल में स्थित जलपोत को स्थिर करने वाला पाषाण कनङ्गर / लंगर है |
१. क्रियते द्विजातिभिः क्रतुः । (निरुक्तम् १ पृ १३६ )
२. क्रियते स्वर्गकामैः ऋतु: । (अचि पृ १८२ )
३. 'कच्छ' का अन्य निरुक्त
( आचू पृ ३९ ) और फैलती है,
कषति त्वचं कच्छू: । (अचि पृ १०६ )
( उच्च् पृ २०९ )
कण्णं सरंति पार्वति कण्णसरा । जधा सरीरस्स दुस्सहमायुधं सरो तहा ते कण्णस्स, एवं कष्णसरा ते । ( अचू पृ २२१ ) जो कानों में सरण / प्रवेश करते हैं, वे कर्णसर / शब्द हैं । जो कानों ने शर / बाण की तरह चुभते हैं, वे कर्णशर / शब्दबाण हैं ।
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४. काश् - - दीप्तौ । कष् - हिंसायाम् ।
( उचू पृ २११ )
जो त्वचा को उत्पीड़ित करती है, वह कच्छू / खुजली है ।
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