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________________ ४० आकार - त्रिशूल के सदृश । विवरण - यह वाद्य मुख्यतः बांस का ही बनाया जाता था, किंतु अब लोहे का भी बनाया जाता है। यह सात-आठ सेंटीमीटर लंबाई का एक छोटा-सा लोक वाद्य है, जो राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश के ब्रज क्षेत्रों में पाया जाता है। किन्तु दक्षिण भारतीय संगीत सभाओं में मृदंग, घट तथा खंजीरा वाद्यों के साथ सहायक ताल वाद्य के रूप में इसका बहुत इस्तेमाल होता है। इस वाद्य का मुख्य चौखटा गोलाकार होता है, जिसका वृत्त पूरा नहीं होता । इस अधूरे वृत्त के दोनों अंतिम छोर लंबे कांटों के रूप में बाहर निकले रहते हैं। इन दोनों कांटों के बीच की जगह में एक पतली जीभ रहती है, जिसका एक सिरा चक्र के भीतरी हिस्से से जुड़ा रहता है और दूसरा सिरा मुक्त होता है। दोनों कांटों से यह थोड़ी सी अधिक लम्बी भ होती है। वादक भूचंग को एक हाथ से पकड़कर उसके दोनों कांटे वाले स्थल को अपने दांतों के बीच मजबूती से पकड़े रहता है। अब वह दूसरे हाथ की अंगुलियों से दोनों कांटों के बीच वाली जीभ को वीणा के तार के समान छेड़कर झंकृत करता है। वादक का मुख इस क्रिया में गूंज उत्पन्न करने वाले अनुनादक का कार्य करता है। इस प्रकार मुख की आकृतियां बदल-बदल कर तथा सांस पर नियंत्रण रखते हुए वादक अत्यंत परिष्कृत एवं कोमल ध्वनियां पैदा करता है। हिन्दी साहित्य में इस वाद्य को मुख चंग भी कहा गया है, क्योंकि यह मुख अर्थात् मुंह में रखकर बजाया जाता है। सूय. टी. पृ. ११६ से भी उपरोक्त कथन की पुष्टि होती है। इसे सुषिर वाद्य और घन वाद्य दोनों ही कह सकते हैं। लोक वाद्यों को सम्मिलित बजाते समय मुख चंग की ध्वनि अपना एक अलग ही आकर्षण रखती है। Jain Education International वेवा (वेवा) निसि. १७/१३९ पेपा, वेवा (तिब्बत) जैन आगम वाद्य कोश आकार - जुड़ी हुई दो नलिकाओं के सदृश । विवरण - यह वाद्य हमारे देश के सभी भागों में नहीं पाया जाता। इसमें लगभग २० सेंटीमीटर लम्बी दो नलियां होती हैं, जो रन्ध्रों के पास आपस में जुड़ी होती हैं। एक सिरे पर एक पत्ती अथवा रीड होती है, जो या तो बांस की नली से ढ़की होती है अथवा खुली रहती है। यह सिरा मुंह में रखा जाता है और आवाज पैदा करने के लिए इसमें फूंक मारी जाती है। प्रत्येक नली के दूसरे सिरे पर भैंस का सींग अथवा धातु का चोंगा भोंपू की तरह काम में लाने के लिए लगा होता है। नृत्य तथा गान की संगति के लिए प्रयुक्त होने वाला यह पेपा वाद्य मुख्य रूप से आसाम में प्राप्त होता है। फूंकने के लिए इसमें विशेष प्रकार की रीड का प्रयोग होता है। इसके एक सींग में वादन के लिए तीन तथा दूसरे में चार छिद्र होते हैं। इसी के सदृश वाद्य को तिब्बत एवं निकटवर्ती क्षेत्रों में वेवा कहा जाता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.016097
Book TitleJain Agam Vadya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size5 MB
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