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हाथ से तांत को खींचा जाता । तुड़ला की
विशेषता यह है कि तांत पर वादक की केवल तीन अंगुलियां संचालित होती हैं और ऊपर या नीचे किये बिना सातों सुर निकालने में समर्थ होती हैं। (विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य वाद्य यंत्र)
दद्दर ( दद्दर, दर्दरक) राज. ७७, जीवा. ३/ ५८७
दर्दुर, दर्दर, दर्दरक
आकार घट के आकार का एक अनवद्ध वाद्य जिसका मुख चमड़े से मढ़ा होता था । विवरण - यह एक प्राचीन वाद्य था । महर्षि भरत के समय में ईसा से २०० वर्ष पूर्व यह एक महत्त्वपूर्ण ताल वाद्य था। क्योंकि इसकी गणना मृदंग और पणव के साथ की गई है। महर्षि भरत के अनुसार इसका मुख नौ अंगुल का होता था, जिसके ऊपर चमड़े की पूड़ी का विस्तार बारह अंगुल का होता था। यह चमड़े की पूड़ी सुतलियों से पणव के समान ही कसी रहती थी। शब्दों को वाद्य पर निकालने के लिए दोनों हाथों का प्रयोग किया जाता था। दाहिने हाथ का प्रयोग मुक्त, अर्धमुक्त तथा बन्द ध्वनियों के वादन के लिए होता था । बाएं हाथ का प्रयोग दाहिने हाथ के सहायक के रूप में होता था। वर्तमान में इस नाम का कोई वाद्य प्राप्य नहीं है किन्तु इस प्रकार के अनेक लोक वाद्य आज भी प्रयोग में हैं, जिन्हें अलगअलग क्षेत्रों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है।
दद्दरिगा (दद्दरिगा, दर्दरिका) राज. ७७ दर्दरिका, लघु दर्दरक
आकार - दद्दरग से छोटा ।
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जैन आगम वाद्य कोश विवरण - यह वाद्य दर्दरक से छोटा होता है। इसकी अनेक किस्में भारतीय लोक संगीत में आज भी अगल-अलग नामों से प्राप्त होती हैं। राज. टी. पू. ४९-५० में "दर्दरिका लघु दर्दरक" कहकर लघु दर्दरक होने का संकेत किया है।
इस वाद्य को गोह नामक छिपकली की खाल से बनाया जाता है। विभिन्न स्वरों को निकालने के लिए वादक चमड़े को ढीला करता है और कसता रहता है।
अनुद्वार हा टी पृ. ६६ में भी “गोधा चम्मावणद्धा गोहिता सा य दद्दरिगा" इसको गोह के चर्म से निष्पन्न अवनद्ध वाद्य माना है।
(विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य-दद्दरग)
दुंदुभि, दुंदुहि (दुंदुभि) उत्त. १२/३६, अनु. ५६९, पज्जो. ७५, दसा. १०/१७. राज. ७७, औप. ६७
दुंदुभि
आकार-नगाड़ा के सदृश ।
विवरण- दुदुभि बहुत कुछ आज के नगाड़े से मिलता था और शंकु आकार के वाद्यों में सबसे प्राचीन था । इसका वर्णन जैनागमों, पिटकों, वेदों एवं कथा - साहित्य में मिलता है। यह कहा जा सकता है कि दुंदुभि एक लोकप्रिय एवं प्रतिष्ठित वाद्य था। अनेक आधुनिक संगीतकार दुंदुभि को नगाड़ा का ही पर्यायवाची मानते हैं। उनके कथन के अनुसार - " ढुंढुं भति इति दुंदुभिः " इस आवाज से दुंदुभि का नाम दिया गया। प्राचीनकाल में इस वाद्य के दो प्रकार थे-१. दुंदुभि २. भूमि दुंदुभि ।
भूमि दुंदुभि गड्ढ़ा खोदकर तथा उसको चमड़े से मढ़कर बनाई जाती थी । प्राचीन दुंदुभि एक ही नग का बड़ा नगाड़ा जैसा होता था। वर्तमान में प्राप्त दुंदुभि प्राचीन दुंदुभि से भिन्न है, जिसका वर्णन
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