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भरड
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छक्खंडयं भारह खेत मेयं ।
पाले पुण्यविषपुत्रभाषा
सारे एवं लय स्वबंधवे ॥ ३६५ ॥ दिट्ठा तो सुंदरि पंडुगंडा,
भद्र रुट्ठो कि न मज्झ बिजे। अभं च इत्थीगयरूपसोहो,
जिरिसा पंडुररूय सोहा ॥ ३६६ ॥ कोदिया भीमा मति,
अस्थित्थ सामिस्स पयप्यसाया । तदिशाओ
सामिस्सगासम्म वयाहिरूढा ॥ ३६७ ॥ तो मुक्करागो पभणे नरीलो,
मुक्काऽसि दिक्खं गह भोयभोए । भुंजाहि वा सुंदरि ! मे समाएं,
मिरा पगडे दि३६८ ॥
पेसे दूयं अभागा,
आयडिया महर पुच्छामा मदि
रज्जं जिणं भवओो अहं पि ॥ ३६६ ॥ सोको परोताओ
जं से तम्रो सामि ! कर्म कमे मामागामं विहरि
(१४०१) अभिधान राजेन्द्रः ।
समागन पव्वयपश्वयम्मि ॥ ३६७० ॥ जिलागमं नाउ कुमारगा ते,
समागया सामिपयस्तगासे । नागस्स,
दिपा
कति सव्वं भरोव ॥ ३७१ ॥ अप्पे रज्जं पकरेसु तुम्भं,
कह ये ताय ! जमम्ह जोग्गा ।
नि भुवं सम्यदयगि
सामी तो संसयमोपखसीप ३७२ ॥ हिजो कहे.
वितगालगागरस
३५१
जहा कोई पुरसो घर,
गोउ इंगालक गिरहे ॥ ३७२ ॥ जगभाणं भरिय गद्दाय,
तं तेण पीयं ग्रह गिम्हकाला ।
परिसमाऽऽपाचपन्हि भाषा,
अत्तिसालंघियसम्यदेहो ॥ ३७४ ॥ मुच्छायला पीजलो षि गेहे,
सचिंत कप्पणाए । समुद्दा नवाबी
उघडे तडागे सरमाइए य ॥ ३७६ ॥ जुत्ताऽगडे दूर जले खिषि,
तणायण पूलं जलपाषा हे । सतति मे होहि ि
जीहाऍ साए पडियाएँ बिंदू ॥ ३७६ ॥ समुद्दतोयेण व जो द तितो,
न पापीसरसीसवाएं।
सति
सिषोषमेऽयुत्तरवासिभोष,
किं न हो पहि
पोषमा मासुसकामभोगा ॥ ३७७ ॥
गोडी कोषमा
तिशी न जाया जा
एहि होही ग्रह भो किमेच्छ ? ॥ ३७८ ॥ एए उ भोगा मनुषाण तुच्छा,
लहुस्सगा दुक्ख करा असारा । अखिच्चया से त्रिरसावसाणा,
पुसा सुई बहुके सहेऊ ॥ ३७६ ॥ एवंविहाधम्मक दाणुवच्चं
सामी सयं सादर ब सुपा देखि
भरह
बेपालिया पार्थ (१) महंत ३०० ॥ संयुकहा कि मो
असेसया सारभवे निवद्धा । जणा या तेरा य मोक्खकज्जे,
समुज्जया होइहु कजसज्जा ॥ ३८१ ।। एके कोई दुइ वा चऊहिं,
कुमारगा जा सयले पबुद्धा । दिसंबर ि
पव्वज्ज सावज्जविवज्जति ।। ३८२ ॥ सुया कया रज्अधुराय तेहि,
पेसे तो बाहुबलिस दूयं । सो सुरतो भर भाई
बाला हु ते तुम्भ कर असमा ३८३ ॥ दूधमा सामि जिसे दिग्
तुम्हे
कणीयसाश्रो नियभाउगाएं,
रखं हरेउं अवलाण तेसि ॥ ३८४ ॥ ते वा वराका अबला अथामा, चितिरजापि किं वा कयं तं पिय गिन्हिऊण,
बोडनिडुरं से ॥ २८५ ॥ सति सामिस्स न ते परिि मुंजाहिर तापि आया इमे पनियमेा
परं ससी सब्बजयप्पवित्तो ॥ ३६६ ॥ पीऊस निस्संद करोहवासी,
सहति देता कमला य दोसा । न तस्स नूगं जइ कोडवराहो.
मारतो
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निसम्म पश्य ॥ २८७ ॥
पज्जाहि सिग्धं अह तं न खिले । स चक्को सम्बबलोव बेनो,
तया गया गंगतडे विसा ॥ ३८८ ॥ पाहि
खितोऽसि मायातले मया उ । काउं किवं जं कलिश्री पडतो,
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