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तीर्थ का 'पाइअसहमहराणव' कोष कलकत्ते से प्रकाशित हो चुका था। यह कोष बहुत विशाल है, एवं प्राकृत साहित्य की एक बहुत बड़ी कमी की पूर्ति करता है । मनुष्य सदाकाल से सुविधा की ओर झुक जाने वाला रहा है । जब कोई सुविधा नहीं होती है, तब तक वह अपने पुरुषार्थ के बल पर कार्यसिद्धि के लिए प्रयत्न करता है। परन्तु ज्यों ही किसी प्रकार की सुविधा मिली कि बस उससे फायदा उठा लेना चाहता है। अस्तु, उक्त कोष के मिलने पर शीघ्रता से कार्य समाप्ति की दृष्टि स अर्धमागधी परिशिष्ट के अतिरिक्त अन्य महाराष्ट्री प्राकृत एवं देश्य प्राकृत के दोनों खंड इसी में से संग्रह कर लिए हैं और उद्धरण एवं स्थान निर्देश भी उसी में से उयों के त्यों लिये है। पाइअसद्दमहराणव' में अर्धमागधी, महाराष्ट्री प्राकृत एवं देश्य प्राकृत तीनों सम्मिलित रूप में साथ-साथ ही दी हुई हैं, पृथक स्वतंत्र विभाजन नहीं है। परन्तु यहाँ महाराष्ट्री प्राकृत तथा देश्य प्राकृत के पृथक् पृथक् स्वतन्त्र विभाग रक्खे हैं। इस प्रकार प्रस्तुत भाग के निर्माण में 'पाइअसद्दमहएणव' का विशेष स्थान है। इसलिए श्रीमान् पं० हरगोविन्ददास जी का नामोल्लेखपूर्वक सविशेष आभार माना जाता है।
श्व० स्था० जैन कान्फ्रेंस की साहित्यिक अभिरुचि प्रारंभ से ही प्रशंसनीय रही है । जिस प्रकार पूर्व के चार भागों में कान्फ्र स का पूर्ण सहयोग रहा है, उसी प्रकार प्रस्तुत भाग के निर्माण में भी उसका सहकार कूछ कम उल्लेखनीय नहीं है। कान्फ्रस ने अपनी ओर स श्रीयुत गिरधरलाल बेचरदास भाई को सहकारी के रूप में मेरे पास नियुक्त किया और उक्त भाग को भी शीघ्रता से पूर्ण कराने के लिये प्रेरणा की। गिरधर भाई ने बड़े उत्साह से शब्द संग्रह एवं लेखन कार्य में सहकार दिया, फलतः मोरबी, वांकानेर आदि स्थानों में रहकर पाँचवाँ भाग शीघ्र ही पूर्ण कर दिया गया। अस्तु, कान्स का सहयोग भी प्रस्तुत भाग में संस्मरणीय रहेगा।
एक बात अंग्रेजी के सम्बन्ध में कहने की है। प्रस्तुत भाग में अंग्रेजी, किसी भाषा के विशेषज्ञ प्रोफेसर आदि से न कराकर गिरधर भाई के द्वारा ही कराई है। यह समय वह था जब कि हमें अजमेर मुनि सम्मेलन में आना था और शीघ्र ही कार्य समाप्त करना था । अतः अंग्रेजी विशेषज्ञ की प्रतीक्षा में कार्य को अधूरा न छोड़ कर जैसा हो सका वैसा गिरधर भाई के द्वारा पूर्ण करा लिया गया। गिरधर भाई अंग्रेजी के जानकार अवश्य हैं, पर वे उसके खास अभ्यासी नहीं हैं। अतः अंग्रेजी में कहीं अशुद्धियां दृष्टिगोचर हों तो पाठक सावधानी के साथ सुधार कर पढ़ें।
पूर्व के चार भागों में अर्धमागधी, संस्कृत, गुजराती, हिंदी और अंग्रेजी-इस प्रकार पाँच भाषाएँ दी है । इसी भाँति प्रस्तुत भाग में भी देश्य खंड में संस्कृत को छोड़ कर चार भाषा
और शेष दोनों खंडों में पाँचों ही भाषाएँ लिखी गई थी। परन्तु जब देहली में मुद्रण होना तै हुआ तो गुजराती की समस्या सामने आई। उत्तर भारत हिन्दी का ही केन्द्र है, अतः गुजराती का मुद्रण इधर नहीं होता। परन्तु मुद्रणालय के अध्यक्ष ने गुजराती मुद्रण का भी विश्वास दिलाया और गुजराती टाइप मँगा कर छापना भी शुरू कर दिया। इस प्रकार अर्धमागधी परिशिष्ट तक अन्य भाषाओं के साथ गुजराती भी छपती रही। परन्तु आगे के दानों खंडों में गुजराती छपाना बन्द कर दिया गया। कारण कि देहली के कंपोजीटर गुजराती ज्ञान से
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